अबरार अहमद खान/मुकीज खान, भोपाल (मप्र), NIT:
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाने वाली पत्रकारिता आज भय और आतंक के बीच अपने दायित्व का निर्वाह कर रहा है। देश भर में पत्रकारों के खिलाफ झूठी एफ आई आर की बाढ़, प्रताड़नाएं,मानसिक तनाव की बढ़ती घटनाएं इस बात का प्रमाण है कि पत्रकारिता के देह लहू लुहान है।तथा उसके शरीर से बहता लहू निष्पक्ष पत्रकारिता को आघात पहुंचा रहा है। सत्ता,राजनीति, माफिया के भंवर में फंसी पत्रकारिता को स्वतंत्र कहना वर्तमान संदर्भ में बेमानी है। यही कारण है कि पत्रकारिता तथा पत्रकारों की दयनीय स्थिति को देखकर पत्रकार बिरादरी की पीड़ा अब न्यायपालिका और न्यायधीशों के मुखारबिंद से जाहिर हो रही है।
मालूम हो कि गत दिनों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख (जेकेएल) हाईकोर्ट के जस्टिस एमए चौधरी ने स्थानीय पत्रकार आसिफ इकबाल नाइक के खिलाफ दर्ज एफआईआर को खारिज करते हुए टिप्पणी दी थी कि पत्रकार के खिलाफ केस दर्ज कर प्रेस की स्वतंत्रता पर लगाम नहीं लगा सकते। पत्रकार पर एक स्थानीय नेता की शिकायत पर पुलिस ने मामला बनाया था क्योंकि पत्रकार द्वारा एक दुराचार पीड़िता बालिका की पीड़ा पर टिप्पणी की थी जो सत्ता धारी पार्टी के नेता को नागवार गुजरी थी, जिसके बाद पुलिस ने नाइक के खिलाफ 2018 में मामला दर्ज किया था। उस पर आरोप था कि नाइक ने फेसबुक पर उस व्यक्ति के खिलाफ टिप्पणी की, जिसने कठुआ बलात्कार मामले में एक पत्रिका से बात की थी। शिकायतकर्ता का आरोप था कि नाइक ने उसकी निजता पर हमला किया है।
जम्मू-कश्मीर और लद्दाख (जेकेएल) हाईकोर्ट के जस्टिस एमए चौधरी की उक्त टिप्पणी के बाद इस बात को सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस यूयू ललित ने भी बल दिया। पूर्व चीफ जस्टिस श्री ललित ने एक पत्रकारिता सम्मान समारोह को संबोधित करते हुए कहा है कि सरकार की निष्पक्ष आलोचना पत्रकार का अधिकार है।
न्यायालय और पूर्व न्यायधीश की टिप्पणी इस बात की ओर इशारा करती हैं कि भारत वर्ष में किस प्रकार निष्पक्ष आलोचना को अपराध के दायरे में लाकर पत्रकारों को प्रताड़ित किया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस यूयू ललित की उक्त टिप्पणी ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि सरकार की निष्पक्ष आलोचना पत्रकार का अधिकार है और पत्रकार यदि निष्पक्ष आलोचना करते हैं तो राजद्रोह नहीं है। तथा सरकार की नीतियों और कृत्यों पर टिप्पणी करना राजद्रोह नहीं है।
गौरतलब हो कि एक लंबे अंतराल से सत्ताधारी या राजनेता सरकार की नीतियों व कृत्यों पर टिप्पणी करने वाले पत्रकारों को आइपीसी की धारा 124ए का सहारा लेकर राजद्रोह का आरोप लगाकर प्रताड़ित किया जाता रहा है। आज भी देश की विभिन्न जेलों में ऐसे सैंकड़ों पत्रकार सरकार की नीतियों व कृत्यों पर टिप्पणी करने पर राजद्रोह का दंश झेल कर सलाखों के पीछे सड़ रहे है। सालों गुजर जाने के बावजूद अब तक वह निर्दोष होकर भी खुली हवा में सांस लेने से वंचित हैं।क्योंकि उनकी आजादी राजनेताओं, सत्तानशीनों के ताबूत में कील साबित होंगी, फलस्वरूप सत्ताधारी तथा राजनेताओं की मंशा के अनुरूप सैंकड़ों पत्रकार नरक भोग रहे हैं।
ऐसे में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित द्वारा की गई टिप्पणी वर्तमान संदर्भ में इस बात को बल देती है कि पत्रकार को आम नागरिक के भांति सरकार की नीतियों और कृत्यों पर टिप्पणी करने का पूरा अधिकार है. और जो राजद्रोह नहीं है। उन्होंने कहा था कि सरकार की निष्पक्ष आलोचना देशद्रोह नहीं हो सकती।उन्होंने कहा, ‘(राजद्रोह के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए हमेशा से ही सभी पत्रकारिता उपक्रमों के लिए परेशानी का सबब रही है। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता की गुणवत्ता में सुधार हो रहा है, लेकिन पत्रकारों को जिस दबाव का सामना करना पड़ रहा है, उसमें बदलाव नहीं आया है। उन्होंने कहा, ‘लेकिन जिस क्षेत्र में कोई बदलाव नहीं हुआ है, वह थोड़ा परेशान करने वाला है. प्रेस की आजादी पर हमला अब भी जारी है।
प्रेस क्लब ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट ने न्यायलय और पूर्व न्यायधीश महोदय की पत्रकारिता के प्रति चिंता तथा की गई टिप्पणी पर आभार व्यक्त करते हुए इस टिप्पणी के दूरगामी परिणाम पर बल दिया।
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