Edited by Atish Dipankar, नई दिल्ली, NIT;
विशेष लेख: अरूण जेटली
क्या ‘सुपर पावर’ बनने की आकांक्षा रखने वाले किसी भी राष्ट्र को रक्षा उपकरणों के आयात पर निरंतर निर्भर रहना चाहिए अथवा स्वदेश में रक्षा उत्पादन अथवा रक्षा क्षेत्र से जुड़े औद्योगिक आधार की अनदेखी करनी चाहिए? निश्चित तौर पर यह उचित नहीं है। स्वदेश में रक्षा उत्पादन अथवा रक्षा क्षेत्र से जुड़ा औद्योगिक आधार किसी भी देश के दीर्घकालिक सामरिक नियोजन का अभिन्न अवयव है। आयात पर काफी अधिक निर्भरता न केवल सामरिक नीति एवं इस क्षेत्र की सुरक्षा में भारत द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका के नजरिए से अत्यंत नुकसानदेह है, बल्कि विकास एवं रोजगार सृजन की संभावनाओं के मद्देनजर आर्थिक दृष्टि से भी चिंता का विषय है। वैसे तो शक्ति से जुड़े तमाम स्वरूपों को हासिल करने पर ही कोई देश ‘सुपर पावर’ के रूप में उभर कर सामने आता है, लेकिन सही अर्थों में सैन्य शक्ति ही महान अथवा सुपर पावर के रूप में किसी भी राष्ट्र के उत्थान की कुंजी है।
इतिहास के पन्ने पलटने पर हम पाते हैं कि भारतीय रक्षा उद्योग 200 वर्षों से भी अधिक समय का गौरवमयी इतिहास अपने-आप में समेटे हुए है। ब्रिटिश काल के दौरान बंदूकें और गोला-बारूद तैयार करने के लिए आयुध कारखानों की स्थापना की गई थी। प्रथम आयुध कारखाने की स्थापना वर्ष 1801 में काशीपुर में की गई थी। देश की आजादी से पहले कुल मिलाकर 18 कारखानों की स्थापना की गई थी। वर्तमान में भारत के रक्षा क्षेत्र से जुड़े औद्योगिक आधार में भौगोलिक दृष्टि से देश भर में फैले 41 आयुध कारखाने, 9 रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम (डीपीएसयू), 200 से अधिक निजी क्षेत्र लाइसेंसधारक कंपनियां और बड़े निर्माताओं एवं रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों (डीपीएसयू) 200 से अधिक निजी क्षेत्र लाइसेंसधारक कंपनियां और बड़े निर्माताओं एवं रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों (डीपीएसयू) की जरूरतें पूरी करने वाले कुछ हजार छोटे, मझोले एवं सूक्ष्म उद्यम शामिल हैं। यही नहीं, रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की 50 से अधिक रक्षा प्रयोगशालाएं भी देश में रक्षा विनिर्माण की पूरी व्यवस्था का अहम हिस्सा हैं।
वर्ष 2000 के आसपास यह आलम था कि हमारे ज्यादातर प्रमुख रक्षा उपकरणों और हथियार प्रणालियों का या तो आयात किया जाता था या लाइसेंस प्राप्त उत्पादन के तहत आयुध कारखानों अथवा रक्षा सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों द्वारा उन्हें भारत में ही तैयार किया जाता था। देश में एकमात्र रक्षा अनुसंधान एवं विकास एजेंसी होने के नाते डीआरडीओ ने प्रौद्योगिकी विकास में सक्रिय रूप से योगदान दिया और स्वदेशीकरण के प्रयासों को काफी हद तक पूरक के तौर पर आगे बढ़ाया। अनुसंधान एवं विकास तथा विनिर्माण क्षेत्र में डीआरडीओ और डीपीएसयू के प्रयासों के परिणामस्वरूप देश अब एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गया है, जहां हमने लगभग सभी प्रकार के रक्षा उपकरणों और प्रणालियों के निर्माण की क्षमताएं भलीभांति विकसित कर ली हैं। आज एक स्थूल विश्लेषण के अनुसार, हमारी कुल रक्षा खरीद में से 40 प्रतिशत खरीदारी तो स्वदेशी उत्पादन की ही की जाती है। कुछ प्रमुख प्लेटफॉर्मों पर स्वदेशीकरण का एक बड़ा हिस्सा बाकायदा हासिल किया जा चुका है। उदाहरण के लिए, टी-90 टैंक में 74 प्रतिशत स्वदेशीकरण, पैदल सेना से जुड़े वाहन (बीएमपी II) में 97 प्रतिशत स्वदेशीकरण, सुखोई 30 लड़ाकू विमान में 58 प्रतिशत स्वदेशीकरण और कॉनकुर्स मिसाइल में 90 प्रतिशत स्वदेशीकरण हासिल हो चुका है। लाइसेंस प्राप्त उत्पादन के तहत निर्मित किए जा रहे प्लेटफॉर्मों में हासिल व्यापक स्वदेशीकरण के अलावा हमने अपने स्वयं के अनुसंधान एवं विकास के जरिए कुछ प्रमुख प्रणालियों को स्वदेश में ही विकसित करने में भी सफलता पा ली है। इनमें आकाश मिसाइल प्रणाली, उन्नत हल्के हेलीकॉप्टर, हल्के लड़ाकू विमान, पिनाका रॉकेट और विभिन्न प्रकार के रडार जैसे केंद्रीय अधिग्रहण रडार, हथियारों को ढूंढ निकालने में सक्षम रडार, युद्ध क्षेत्र की निगरानी करने वाले रडार इत्यादि शामिल हैं। इन प्रणालियों में भी 50 से 60 प्रतिशत से अधिक स्वदेशीकरण हासिल किया जा चुका है।
सरकारी विनिर्माण कंपनियों और डीआरडीओ के जरिए हासिल की गई उपर्युक्त प्रगति को देखते हुए अब वह सही समय आ गया था कि भारतीय रक्षा उद्योग के दायरे में निजी क्षेत्र को शामिल करके रक्षा से जुड़े औद्योगिक आधार का समुचित विस्तार किया जाए। वर्ष 2001 में सरकार ने 26 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के साथ रक्षा निर्माण में निजी क्षेत्र के प्रवेश को बाकायदा अनुमति दे दी। हमने रक्षा क्षेत्र से जुड़े अपने औद्योगिक आधार का विनिर्माण करने और इस तरह अंततः आत्मनिर्भरता हासिल करने की दिशा में हो रहे सफर को अपनी मंजिल पर पहुंचाने के लिए देश में उपलब्ध विशेषज्ञता और उद्योग जगत के पूरे स्पेक्ट्रम की क्षमता का दोहन करने हेतु अथक प्रयास किए हैं। वैसे तो वर्ष 2001 में ही निजी क्षेत्र के प्रवेश को अनुमति दे दी गई थी, लेकिन रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र की भागीदारी लगभग 3-4 साल पहले तक नगण्य ही थी और वह भी मुख्यत: आयुध कारखानों और डीपीएसयू को आपूर्ति करने के लिए कलपुर्जों एवं उपकरणों के उत्पादन तक ही सीमित थी। पिछले 3 वर्षों के दौरान लाइसेंसिंग व्यवस्था में उदारीकरण की बदौलत विभिन्न रक्षा वस्तुओं के निर्माण के लिए 128 लाइसेंस जारी किए गए हैं, जबकि उससे पहले पिछले 14 वर्षों में केवल 214 लाइसेंस ही जारी किए गए थे।
चूंकि रक्षा एक क्रेता एकाधिकार क्षेत्र है, जिसमें सरकार ही एकमात्र खरीदार है, अत: ऐसे में घरेलू रक्षा उद्योग की संरचना और विकास सरकार की खरीद नीति के जरिए संचालित हो रहा है। इसलिए सरकार ने देश में ही निर्मित उपकरणों को वरीयता देने के लिए अपनी खरीद नीति को अब पहले के मुकाबले बेहतर बना दिया है। सामरिक प्लेटफॉर्मों जैसे लड़ाकू विमानों, हेलीकॉप्टरों, पनडुब्बियों एवं बख्तरबंद वाहनों के निर्माण को और ज्यादा बढ़ावा देने के लिए सरकार ने हाल ही में एक ऐसी सामरिक साझेदारी नीति की घोषणा की है, जिसके तहत चयनित भारतीय कंपनियां प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के जरिए भारत में इस तरह के प्लेटफॉर्मों का निर्माण करने के लिए विदेशी मूल उपकरण निर्माताओं (ओईएम) के साथ मिलकर संयुक्त उद्यमों की स्थापना कर सकती हैं या अन्य प्रकार की भागीदारियां स्थापित कर सकती हैं। पिछले 3 वर्षों में अपनाई गई नीतियों और पहलों ने अपेक्षित परिणाम दिखाने शुरू कर दिए हैं। 3 साल पहले वर्ष 2013-14 में कुल पूंजीगत खरीदारी का केवल 47.2 प्रतिशत हिस्सा ही भारतीय विक्रेताओं से खरीदा गया था, जबकि वर्ष 2016-17 में यह बढ़कर 60.6 प्रतिशत हो गया है।
देश में ही रक्षा उपकरणों के स्वदेशी डिजाइन, विकास और विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने अनेक नीतिगत एवं प्रक्रियागत सुधार लागू किए हैं। इनमें लाइसेंसिंग एवं एफडीआई नीति का उदारीकरण, ऑफसेट संबंधी दिशा-निर्देशों को सुव्यवस्थित करना, निर्यात नियंत्रण प्रक्रियाओं को तर्कसंगत बनाना और सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र को समान अवसर देने से संबंधित मसलों को सुलझाना शामिल हैं।
डीपीएसयू की कार्यप्रणाली को बेहतर बनाने के लिए भी कई कदम उठाए गए हैं। सभी डीपीएसयू और आयुध कारखाना बोर्ड (ओएफबी) से कहा गया है कि वे एसएमई को अपनी आउटसोर्सिंग बढ़ाएं, ताकि देश के भीतर विनिर्माण की समुचित व्यवस्था विकसित हो सके। डीपीएसयू और ओएफबी को निर्यात के साथ-साथ लागत को कम करके एवं अक्षमताओं को दूर करके अपनी प्रक्रियाओं को और अधिक कुशल बनाने के लिए भी लक्ष्य दिए गए हैं। हमारे रक्षा शिपयार्डों ने जहाज निर्माण में काफी हद तक स्वदेशीकरण हासिल कर लिया है। आज समस्त जहाजों और गश्ती जहाजों इत्यादि के लिए नौसेना और तटरक्षक द्वारा भारतीय शिपयार्डों को ऑर्डर दिए जा रहे हैं। धीरे-धीरे डीपीएसयू में विनिवेश पर विशेष जोर दिया जा रहा है, ताकि उन्हें और अधिक जवाबदेह बनाया जा सके तथा इसके साथ ही उनमें परिचालन दक्षता भी सुनिश्चित की जा सके। पिछले 3 वर्षों में डीपीएसयू और ओएफबी के उत्पादन मूल्य (वीओपी) में लगभग 28 प्रतिशत एवं उत्पादकता में 38 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है।
जहां तक रक्षा उत्पादन का सवाल है, हम आत्मनिर्भरता की दिशा में अपनी यात्रा के निर्णायक और महत्वपूर्ण चरण में हैं। आजादी के बाद पहले तो हम मुख्यत: आयात पर ही अपना ध्यान केंद्रित कर रहे थे, लेकिन धीरे-धीरे हम सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशकों में लाइसेंस प्राप्त उत्पादन की ओर बढ़ने लगे थे और अब अपने देश में ही डिजाइन, विकास और विनिर्माण करने की तरफ अपने कदम बढ़ाने शुरू कर दिए हैं। ऑटोमोबाइल, कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, भारी इंजीनियरिंग इत्यादि जैसे अन्य क्षेत्रों की भांति ही मुझे उम्मीद है कि निरंतर नीतिगत पहलों, कुशल प्रशासनिक प्रक्रिया और आवश्यक मार्गदर्शन एवं सहायता की बदौलत भारतीय रक्षा उद्योग बेहतर प्रदर्शन करने लगेगा और इसके साथ ही हम निकट भविष्य में देश में ही प्रमुख रक्षा उपकरणों एवं प्लेटफॉर्मों की डिजाइनिंग, विकास और विनिर्माण शुरू होने के साक्षी बन सकते हैं। सुधारों की प्रक्रिया के साथ-साथ बिजनेस में आसानी या सुगमता सुनिश्चित करना भी एक सतत प्रक्रिया है और इसके साथ ही सरकार एवं उद्योग जगत को आपस में मिलकर एक ऐसा परितंत्र या सुव्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी, जो इस क्षेत्र के विकास एवं स्थिरता के लिए आवश्यक है और यह राष्ट्रीय सुरक्षा के हमारे दीर्घकालिक हित में होगा।
लेखक केंद्रीय रक्षा, वित्त और कॉर्पोरेट मामले के मंत्री हैं।
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