माहे रमजान शुरु होने को है---जकात की बरबादी न होने दें मुसलमान: अशफाक कायमखानी | New India Times

अशफाक कायमखानी, जयपुर, NIT; ​माहे रमजान शुरु होने को है---जकात की बरबादी न होने दें मुसलमान: अशफाक कायमखानी | New India Times
खास तौर पर भारतीय मुस्लिम समुदाय में अपने माल का इस्लामी शिक्षानुसार चालिसवा हिस्सा जकात के रुप मे देने का चलन रमजान माह में ही अधिक पाया जाता है। लेकिन पुरी तरह हिसाब करके अपने माल की जकात अदा करने वाले व लेने के असल हकदारों की तादात 100 नहीं होने के कारण आज मुसलमान गरीब से गरीब व मंगता से मंगता होता जा रहा है। शायद सभी ने गौर किया होगा कि जकात का ठीक ठीक मुनज्जम तरीका मुसलमानों द्वारा नही अपनाने के कारण भिखारियों में सबसे अधिक तादात मुसलमानों की सालभर दिखाई देती रहती है।

 हालांकि जकात के मुद्दे पर मेरा द्वारा लिखने से कुछेक के पेट मे दर्द व नाराजगी झलक सकती है। लेकिन मैं हमेशा से देखता आ रहा हूं कि रमजान माह में ऐसे अनजान लोग कुछ रशीदे लेकर या बिना रशीद के जकात मांगने आ जाते हैं, जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते लेकिन कभी कभी दिखावे के तौर पर हम जकाद दे भी देते हैं, जो जकात के हकदार है या नही? जबकि इसके विपरीत हमारे रिस्तेदार, पड़ोस व जानकार में ऐसे अनेक लोग मौजूद हैं जिनके बारे में हम पुरी तरह संतुष्ट हैं कि वो जकात के असल हकदार हैं। उनको पेट भरने, बीमारी से तिलमिलाते, कर्ज के बोज से दबे, फीस जमा कराने व बुक्स खरीद के लिये पैसों का इंतेजाम न होने से स्कूल की दहलीज तक ना देखना, जहीन बच्चा होने पर आला तालिम के लिये चयन होने के बावजूद फीस का इंतेजाम ना होना , जवान बेटियों की शादी ना होना जैसे अनेक उदाहरण हमारे आस पास रोज देखने को मिलते हैं,  लेकिन इधर सबसे निजात पाने के लिये जकात जमा करने का कोई मुनज्जम तरीका आज भी हम गावं-शहर तक कायम नहीं कर पाये हैं। हां असल मदरसों व संस्थाओं एवं हकदार लोगों को भी जकात जरुर देनी चाहिये लेकिन अल्लाह पाक ने अक्ल-ऐ-सलीम जब इंसान को दी है तो उसको यह होश भी होना चाहिये कि उसकी सही जगह तो जा रही है ना? देखने व सुनने में तो यहां तक आया है कि अनेक संस्थाऐं व संस्थान 50-55% तक के कमीशन पर लोग जमा करने के लिये सफीर तय करते हैं, जो घूम घूम कर जकात जमा करते रहते हैं।

अगर जकात का गावं-गावं , शहर – शहर व बस्ती – बस्ती एक मुनज्जम तरीक ए कार तय करके बेतुल माल की शक्ल में जमा करके उससे इस्लामी हिदायतों के मुताबिक उसका यूज किया जाये तो समुदाय की काफी हद तक गरीबी, भूखमरी, जाहिलता व भीख मंगापन दूर हो सकता है। लेकिन अफसोस हम हमारी जकात का चिथड़े चिथड़े करके उसका आज भी सदुपयोग नही कर पा रहे हैं। जबकि हम अपने आपको समझदार-दीनदार-वफादार व अमानत में ख्यानत नहीं करने वाला कहते कहते थकते नही है। कुछ जगह बेतुल माल जमा करने की कोशिशे भी की जाती है लेकिन उससे जीवन में बदलाव लाने में उपयोग ना करके उसको संकूचित व अपने मफादपरस्ती से उपयोग करने लग जाते हैं कि वो तीन चाल में ही भीखर कर अवाम का विश्वास खोने लगता है। पिछले साल से राजस्थान के सीकर शहर में बिना सुदी लोन मुहैया करने वाले तौसीफ सुधार समिति के सदर हाजी इस्लामुद्दीन शेख ने बहुत छोटे स्तर पर जकात जमा करके बेतुल माल स्कीम को शुरु करके जरुरतमंद लोगों को बिना सूदी लोन एक योजना व सिस्टम के तहत देना शुरु किया था। आज वो बी एम योजना क्षेत्र में काफी मकबूल होने के साथ साथ अनेक लोगों को ब्याज से बरबाद होने से बचाकर जीवन में पूरी तरह बदलाव लाकर रख दिया है। अगर हाजी इस्लामुद्दीन शेख जैसे खिदमत-ऐ-खल्क में विश्वास करके ठीक से योजना को लागू करके लोगों का जीवन स्तर बदलने वाले चाहे ज्यादा नहीं पर हर शहर में एक एक आदमी भी तैयार होकर काम शुरु करदे तो मानो अगले दस साल में समुदाय में बडा बदलाव देखने को मिल सकता है।

कुल मिलाकर यह है कि जकात देना जिस किसी पर भी फर्ज होता है उन सभी को हर हालात में अपने माल का पूरा पूरा हिसाब करके उसका इस्लामी हिदायतों के मुताबिक चालिसवा हिस्सा हर हाल में जकात के रुप में हर नजदिकी रिश्तेदार, गरीब व हकदार को पहले अदा करने की कोशिश करनी चाहिये। साथ ही यह भी ध्यान होना चाहिये की उसके द्वारा अदा की जा रही जकात कभी जाया तो नहीं हो रही है।


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