Edited by Arshad Aabdi, NIT:
लेखक: डॉ. अनिल कुमार मीणा
दिल्ली विश्वविद्यालय में लगभग 5000 एडहॉक अध्यापक पढ़ाते हैं लेकिन उनकी लेकिन प्रत्येक 4 महीने बाद जॉइनिंग को लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन असंवेदनशील रवैया अपनाता रहता है | मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार ने स्थाई नियुक्ति तक किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं करने का आदेश जारी किया था| लेकिन प्रशासन बार बार शैक्षणिक कैलेंडर बदलना, परीक्षा तिथियों को आगे बढ़ाना, ऑन लाईन परीक्षा लेने पर अड़े रहने की जिद्द तदर्थ शिक्षकों के लिए कोरोना संकट के समय तनाव को बढ़ाने, उनके लिए रोजी रोटी का संकट के साथ साथ उनके रोजगार पर भी गम्भीर प्रभाव डाल रहा है। एडहॉक अध्यापकों ने प्रशासन की शोषण करने की मानसिकता के खिलाफ अनेक आंदोलन किए लेकिन सफलता नहीं मिली।
एडहॉक अध्यापकों के आंदोलन की असफलता के कारण
- वह नियमित नहीं है हर 4 महीने बाद विभागाध्यक्ष एवं कॉलेज के प्राचार्य के रहमों करम पर जिंदा रहना पड़ता है| उन्हीं के बनाए हुए विधान एवं नियमों के अनुसार उनको चलना पड़ता है| जब कॉलेज के प्रशासन की मानसिक शोषण की पराकाष्ठा चरमोत्कर्ष सीमा पर पहुंच जाता है तब तदर्थ अध्यापक पर बेदखल होने की तलवार लटकने लग जाती है, उस असहाय वक्त पर वह आंदोलन भागीदार बनने के लिए मजबूर हो जाता है| और जैसे ही उनके निजी फायदे पूरे हो जाते हैं वह अपने आप को आंदोलन से दूर कर देता है |
- कुछ एडहॉक अध्यापक कॉलेज प्रशासन की नजरों में अच्छा बने रहने एवं भविष्य में नियमित होने का सहयोग लेने के लिए आंदोलन से दूरी बनाकर रखते हैं समय-समय पर जिसका दुष्परिणाम यही होता है कि वह भी खतरों की तलवारों से नहीं बच पाता |
- दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा समय-समय पर स्क्रीनिंग लिस्ट आउट करने का खेल खेला जाता है |जिसके कारण तदर्थ अध्यापक सब कुछ भूल कर साक्षात्कार में अपना नाम डलवाने, अपने को नियमित करवाने के जुगाड़ में लग जाता है और वह पूरी तरह से आंदोलन से दूरियां बना देता है|
- विश्वविद्यालय में अध्यापकों के हितों की रक्षा के लिए कई संगठन बने हुए हैं जो समय समय पर अध्यापकों के मुद्दों को लेकर लड़ाई लड़ते हैं| जब जब आंदोलन बुलंदियों पर होता है तब तक संगठनों के हित आपस में टकराने से संगठन के लोग अपने आप को धीरे आंदोलन से दूर कर लेते हैं जिसका नुकसान एडहॉक अध्यापकों को उठाना पड़ता है|
- असफलता का कारण यह भी माना जाता है कि आंदोलन के लिए जो रोड मैप तदर्थ अध्यापक तैयार करते हैं उसे टूटा नजरअंदाज करके अपने बनाए हुए रोड मैप के अनुसार चलता है| जब जब आंदोलन सरकार को दिखाने के लिए अपने चरम पर होता है उसी वक्त डूटा अपने महत्वकांक्षी मुद्दों के साथ प्रशासन से समझौता कर लेता है | दूरगामी परिणाम यह होता है कि ना डूटा की मांग पूरी हो पाती है और ना ही एडहॉक अध्यापकों की समस्याओं का समाधान होता है | जिसका दुष्परिणाम सबको खाली बेबस हाथों से लौटना पड़ता है फिर से उस आंदोलन को ऊंचाइयों पर पहुंचाना और सभी का विश्वास जीत पाना एक चुनौती बन जाता है |
- जब-जब अध्यापकों को नियमित करने की मांग ऊंचाइयों पर होती है तब तब प्रशासन रोस्टर के मुद्दे पर उलझा कर रख देता है| यह भ्रम फैलाने का प्रयास किया जाता है सामान्य वर्ग की सीट आरक्षित वर्ग में बदल गई है और आरक्षित वर्ग की सीट सामान्य वर्ग में बदल गई है| ऐसे माहौल में एडहॉक अध्यापक नियमित होने की लड़ाई को छोड़कर तदर्थ अध्यापक बने रहने की लड़ाई लड़ने लग जाता है|
आखिर सरकार एडहॉक अध्यापकों को नियमित नहीं करने के पीछे मंशा क्या है:-
- सरकार को ऐसा लगता है कि शिक्षण संस्थानों को चलाने के लिए नियमित अध्यापकों को पर जितना खर्च किया जाता है शायद उससे बहुत कम मात्रा में एडहॉक अध्यापकों पर खर्च करके संस्थाएं आराम से चलाई जा सकती है।
- एडहॉक शिक्षकों को अतिरिक्त सेवायें में नहीं देनी पड़ती |
- सरकार के कदम निजीकरण की तरफ बढ़ने के कारण भी उच्च शिक्षा प्राप्त युवाओं को सरकारी नौकरियों से वंचित रखना चाहती है।
- सरकार तदर्थ अध्यापकों के मुद्दों पर उलझा कर दिल्ली विश्वविद्यालय में लंबे समय से कार्यरत नियमित अध्यापकों की पदोन्नति करने से बचना चाहती है| अर्थात कम खर्चे पर विश्वविद्यालय चलाना चाहती है |
- सरकार अपने पूंजीपति मित्रों को फायदा पहुंचाने के लिए धीरे-धीरे सरकारी संस्थाओं को कमजोर करने का काम कर रही है| केंद्रीय विश्वविद्यालय में भी निजीकरण के द्वार खुल जाए |
एडहॉक अध्यापकों को नियमित करना क्यों जरूरी है:-
- दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रत्येक वर्ष 300 अध्यापक सेवानिवृत्त होते हैं | पिछले 13 सालों का हिसाब लगाएं 3900 रिक्त पद सृजित होते हैं| 2009 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने ओबीसी वर्ग के विस्तार के लिए विश्वविद्यालय में 2000 नए पद सृजित किए थे| दूसरे किश्त के तहत 2010 से थे, उन्हें पिछले साल 2019 में यूजीसी ने भरने के लिए निर्देश जारी किए थे उसे अभी तक नहीं भर पाए | इस साल 300 सीटें मिलेंगी सेवानिवृत्ति के कारण बनाया गया, विश्वविद्यालय ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) विस्तार योजना के तहत लगभग 2000 पदों की उम्मीद है।इस तरह से कुल रिक्त सर्जित पद 10200 बनते हैं जिनको सरकार ने पिछले 13 सालों में 1400 नियुक्तियां करने का साहस जुटा पाई है| फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय में 8800 पद खाली हैं जिनको भरने एवं फिलहाल दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन के पास 3500 से अधिक सहायक अध्यापकों की विलंबित पदोन्नति के मामलों को पूरा करने के लिए लगभग 10-15 साल लगेंगे |
-दिल्ली विश्वविद्यालय में लंबे समय से पढ़ाने वाले अध्यापकों को कई बार उस मंजर को भी सामना करना पड़ा जिन छात्रों को उन्होंने अध्यापन करवाया एडहॉक के साक्षात्कार के समय उनको भी साथ-साथ इंटरव्यू का सामना करना पड़ा | कई कॉलेजों में ऐसी परिस्थितियां भी आई जिनको पढ़ाया वहीं पढ़ाने वाले तदर्थ अध्यापक का साक्षात्कार ले रहा था| तदर्थ अध्यापक प्रशासन की व्यवस्था के कारण अपने आप को नियमित नहीं पाता है और उसको अंदर ही अंदर अपनी योग्यता पर अनेक प्रश्न चिन्ह खड़ा होते हुए पाता है |
- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की दिशानिर्देशों को पूरा करने वाले, लंबे समय से पढ़ा रहे एडहॉक अध्यापक रहते हुए कई अध्यापक सेवानिवृत्त हो गए| कई अध्यापक मानसिक उत्पीड़न के कारण आत्महत्या के शिकार हो गए| यह भी माना जाता है मझधार में लटके हुए अध्यापक एवं मानसिक उत्पीड़नता के कारण जितना अच्छा कर सकते थे उतना अच्छा नहीं कर पा रहे हैं|
- दिल्ली विश्वविद्यालय में तदर्थ अध्यापकों की दुर्दशा को देखते हुए मानव संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार ने 5 दिसंबर को नियमित होने तक बने रहने का कानून पास किया| दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन ने अमानवीयता का परिचय देते हुए कोरोना वायरस के कारण फैली महामारी में भी तदर्थ अध्यापकों की सैलरी पर रोक लगा दी | इस परिस्थिति में वह अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं पूरी नहीं कर पा रहा है| प्रशासन समय-समय पर परेशान करने के लिए अनेक हथकंडे अपनाता रहता है | इसलिए विश्वविद्यालय में शिक्षा के माहौल को बनाए रखने के लिए प्रशासनिक राजनीति से बचाने के लिए एडहॉक अध्यापकों का नियमित करना जरूरी है|
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