भैरु सिंह राजपुरोहित, बीकानेर (राजस्थान), NIT; वरिष्ठ साहित्यकार, विचारक , चिंतक डॉ मेघना शर्मा साहित्य जगत का एक जाना पहचाना नाम है। आपकी लेखन शैली अपने आप में अद्भुत है। शब्दों पर सटीक पकड़ और सटीक लेखन पाठक को बांधे रखता है। अब तक आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और आप राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सम्मानित हो चुकी हैं। आपकी नई पुस्तक “मुट्ठी में आकाश” पर आपकी कलम से कुछ शब्द ….
साहित्य सृजन वर्तमान परिदृश्य में अधिक महत्वपूर्ण इस आशय से हो जाता है कि आज सूचना संचार तकनीक के त्वरित विकास के चलते मशीनी से होते जा ताबडतोड और अविरल क्रियाकलाप, चिंतन के कोनों की आर्द्रता को तो हर ही रहे हैं साथ ही व्यक्ति के जीवन में एक अनजानी अनचाही शुष्कता पसार रहे हैं जिसके ओर छोर का अनुमान लगाने के प्रयास करने वाले स्वयं इस तकनीक की ‘उपलब्धि स्वरूप’ दिन रात चौकस अवसाद के सीसीटीवी कैमरों से घिरे रहते हैं या फिर तकनीक के साथ कदमताल करने के भ्रम में पल पल बदलते गैजेट्स, मोबाइल फोन, टैब्लेट्स के नवीनतम माडल की खोज करते रहने में उलझ स्वयं खुद को खुद से बहुत दूर कहीं छोड आते हैं। ऐसे में साहित्य सृजित करने वालों की जिम्मेदारियां बढ जाती हैं। यही नहीं यह तकनिक वयस्कों से उनकी ऊर्जा छीन रही है तो वही बच्चों से उनकी जिज्ञासा, उत्सुकता और लगन का हरण कर रही है और हम कुछ नहीं कर पा रहे क्योंकि हमें वक्त ही कहाँ है जो इनसे इतर राहों की पडताल भी कर सकें?
बहरहाल मेरे दो दशकों के साहित्य सृजन के सफर में सबसे कठिन विधा यदि कोई रही तो वो है – बाल साहित्य सृजन! मुझे यह स्वीकारने में तनिक भी झिझक नहीं कि मैंने अपने द्वारा रचित बाल रचनाओं को कई कई बार सुधारा और कई स्तरों से गुजारकर फिर उन्हें अंतिम रूप दिया, वो इसलिए क्योंकि कोरे कागज पर लिखना आसान हुआ करता है मगर बालमन या यूँ कहें कि बच्चों के मनोमस्तिष्क में गहरे तक पहरी कार्टून फिल्मों की स्मृतियों और आकर्षणों के चिन्ह मिटाकर सीख की नई इबारत को कुशलता और सफलतापूर्वक लिखना आज के युग में अधिक दुष्कर कार्य है। एक जमाने में बचपन कोरा होता था, मासूम होता था, निर्लिप्त होता था, सहजग्राही होता था जो अखबारों और पत्रिकाओं की चित्रकथाओं को पढकर अपनी कलपनाशक्ति से उनमें रंग भरता था तो उनमें छिपे संदेशपरक घटनाओं से अभूतपूर्व मनोरंजन के साथ ही साथ जीवनदर्शन के चरणों से सहज ही गुजर अपरोक्ष रूप से मूल्य शिक्षा व सामाजिक संस्कृति के सोपान तय करता था।मगर अफसोसजनक बात यह है कि आज का बचपन कैद है कार्टून चरित्र और अनथक दौडते इलैक्ट्रौनिक रिमोट संचालित खिलौनों (?) और तोडफोड मचाते वीडियो गेम्स के जादुई तिलिस्म में जो रचनात्मकता के संदेशों से ठीक उलट बच्चों में विध्वंस और एकाकी जीवन के बीज रोप रहे हैं। कहां खो गया आखिर वो बचपन जब बच्चे अखबार के साथ आने वाले साप्ताहिक बाल विशेषांक का पूरे हफ्ते इंतजार करते थे? चाचा चौधरी , बिल्लू, मोटू पतलू, रमन आदि काॅमिक्स को रेल के सफर में साथ रख ले जाते थे? खो चुकी वो रचनात्मकता की जमीन और लील चुका आईफोन नन्हे बच्चों की एकाग्रता का आसमान। ऐसे में बाल साहित्य को रचना, बच्चों को प्रिंट मीडिया की ओर पुनः आकर्षित करना, उनमें समाई अपार संभावनाओं से उनके बचपन का पोषण करना सबसे कठिन कार्य है।हनुमानगढ के श्री Deendayal Sharma जी ने इसी मकसद के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है और उनके प्रोत्साहन से ही मैंने अपने अंतस के अंदर छिपे “बाल मन” की तहों को जाना पहचाना व इस पहले प्रयास के साथ आपके समक्ष उपस्थित हुई हूँ इस आशा के साथ कि बच्चों के दिल पर छोटी सी ही सही मगर एक दस्तक देने में तो शायद कामयाब हो ही जाऊंगी। अपने अंश सौम्य (सुमू) को समर्पित यह प्रयास……….
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