अशफाक कायमखानी, जयपुर, NIT; दक्षिणी भारत की तरह उत्तरी भारत के मुस्लिम समुदाय को भी अपने सियासी लिडरशिप व मौजूदा सियासत में बदलाव लाते हुये सामाजीक स्तर के ताने बाने के धरातल को पूरी तरह समझने वाले शिक्षित व मिठ्ठे बोल बोलने वालों को आगे लाने पर विचार करना होगा। वरना मौजूदा बड़बोली व सहमी गुलाम जेहनियत वाली मुस्लिम सियासी सिस्टम के चलते सामाजिक बदलाव आना दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है।
उत्तरी भारत में अधिकांश समय एक खास दल की सरकारे रहने के चलते इस दल के ज्यादातर लिडरस की स्थानीय स्तर पर समान रुप से एक कोशिश रही है कि वो मुस्लिम समुदाय में से अनपढ या कम पढे व कुछ अजीब आरोपों से घिरे कमजोर से कमजोर लिडरशिप को उभारने की हरदम कोशिशें कीं, जिसके कारण उन्हीं मुस्लिम लिडरशिप के चेहरे को अपने मतदाताओं को दिखा दिखाकर भाजपा अपने मतों का दायरा फैलाने में अक्सर कामयाब होती रही है। उत्तरी भारत में सबसे निचले स्तर पर स्थानीय निकाय व पंचायत स्तर की मुस्लिम लिडरशिप पर अगर आप जरा भी गौर करें तो उनके अधिकांश जनप्रतिनिधी कम पढे, अनपढ,अक्खड़ स्वभाव व अनेक आरोपों से घिरे मिलने वाले ही अधिक होंगे, क्योंकि कांग्रेस के स्थानीय विधायक या लीडर पूरे समय इस कोशिश में रहते आये हैं कि उनके आसपास इसी तरह के मुस्लिम लोग नजर ही नहीं आयेंगे बल्कि वो स्थानीय निकाय व पंचायत सदस्य के लिये अधिकांश टिकट ही ऐसे लोगों को छांट-छांट कर देते हैं कि जिनमें कोई ढंग का पढा लिखा, सामाजीक सरोकार व अन्य समुदायों में भी पेठ रखने वाला ना हो? जबकि दक्षिणी भारत की मुस्लिम लिडरशिप का अधिकांश हिस्सा सामाजिक खिदमत व आला दर्जे के शैक्षणिक इदारे चलाने के रास्तों से शुरुवात करते हुये आला शैक्षणिक डिग्री पाकर इस फिल्ड में आते हैं। वही उत्तरी भारत में अधिकांश कम से कम पढे लिखे व अनैतिक कार्यो के रास्तों को पार करते हुये स्थानीय लिडरशिप के उद्देश्यों को पुरा करने वाले एवं उन्हीं की चाहत के अनुरुप कदम उठाने वाले ही सियासी फिल्ड मेंउभर कर अब तक आते आ रहे हैं। हाल दुरु मियां-सलमान खुर्शीद-नूरजहां जेसे अनेक लोग भी बडे बडे घरों से ऊपर से भी टपकते हैं जो अवल तो धरातल को पहचानते ही नहीं हैं, अगर उनमें से कुछ पहचानते भी हैं तो वो अपने को वहां तक जाने में शर्म सी महसूस करता है। तभी तो उत्तरी भारत में मुस्लिम समुदाय में वो लीडर अधिक उभर रहा है जो अवल तो लीगल या इनलिगल जमीनी कारोबार में लगा हो या फिर गैस या पेट्रोल पम्प का मालिक हो। या फिर अन्य अजीब-अजीब कार्यो के साथ-साथ बड़बोला एवं शोला ब्यानी करने का मास्टर माइंड हो। लेकिन उनमें दो चार भी हरगिज उच्च शिक्षित- आला मुकाम वाले शैक्षणिक इदारे चलाने वाला किरदार का धनी कतई नहीं देखने को मिलता है। जबकि दक्षिणी भारत में अधिकांश मुस्लिम सियासी लीडर उच्च शिक्षित, आला दर्जे के तालिमी इदारे चलाने वाले व किरदार के धनी के साथ साथ सभी समुदाय में समान रुप से स्वीकार्य लोग ही पाये जाते हैं, यानि दक्षिणी भारत में संघर्ष से निकलकर मुस्लिम लीडर आते हैं तो उत्तरी भारत में दलों के नेताओं की मेहरबानी से लीडर बनते आ रहे हैं।
बदकिस्मती से भारत का जब बंटवारा हुआ तब दक्षिणी भारत के मुकाबले कई गुणा अधिक उत्तरी भारत के लोग भारत छोड़ गये जिनमें सरकारी कर्मचारी, अधिकारी, उच्च शिक्षित व जरा वजनदार लोग ही गये थे। जिसके चलते यहां जो लोग रहे उनमें गरीब, शैक्षणिक व आर्थिक तौर पर कमजोर थे। जिनकी तत्तकालिन नेताओं की छात्र छाया से निकल कर शिक्षा को अपनाकर जहन को विस्तार देने की सोच देने की कुव्वत काफी नीचे पाई जाती थी। यानि तत्तकालिन नेता मुस्लिमों को स्थानीय स्तर पर इतना डराकर रखते थे कि अगर कोई अपनी समझदारी से सरकार से कुछ मांगने की कोशिश भी करता तो लोग उसे यह कहकर डराते थे कि उन्हें किसी तरह का ऐजेंट बताकर पकड़वा देगे। डरे सहमे व तत्तकालिन नेताओं की आंख में आंख गडाकर अपने हक की मांग करने से हमेशा कतराने वाले मुस्लिम समुदाय को उत्तरी भारत में सबसे पहली ताकत इमरजेंसी के तुरंत बाद शाही इमाम मौलाना अब्दुल्ला बुखारी ने तत्कालिन सरकार की गलत नीतियों की खुली आलोचना करके दी थी, लेकिन बाद में शाही इमाम अब्दुल्लाह बुखारी के वारिसों की कलाबाजियां खाने व आवाजें निरंतर बदलते रहने से उनकी आवाज में वो दम आज नहीं रहा जो उनकी आवाज मे 1977 में अचानक देखने को मिला था। जबकि दक्षिणी भारत का मुस्लिम समुदाय हमेशा से ही बेजुबान जानवर की तरह किसी एक खूंटे से बंधने के बजाये उस मजबूत व उचित खूंटे को हमेशा पकड़ते रहे जिसके खूंटे के रहते उनका सामुहिक तौर पर शैक्षणिक व आर्थिक तौर पर अधिकाधिक विकास होता था।हालांकि आज भारत का सत्तारुढ दल भाजपा का कोई सार्थक ऐजेण्डा ना रहकर उसके एक मजबूत ग्रुप का मुख्य ऐजेण्डा मुस्लिम मसलों पर विवाद पैदा कर उसे कायम रखने व मिडिया में जोरशोर से मुद्दा बनाये रखना ही प्रतीत होता है। जबकि वो अगर कुछ करना चाहिये तो सबसे पहले मुस्लिम समुदाय में शैक्षणिक सुविधाओं का विस्तार व उनके लिये आला तालिम के रास्ते अधिकाधिक खोलने चाहिये। वरना उनकी सरकार भी समुदाय के लिये तो पहले बनी सरकारों की तरह ही साबित होगी।
कुल मिलाकर यह है कि हालात को सामने रखकर मुस्लिम समुदाय के पढे लिखे व साफ छवि के लोगों को सियासत में आगे आकर कदम बढाना होगा और समुदाय को भी अब अपने अंदर मौजूद चापलूस, कमजोर व अजीब कार्यो में लिप्त सियासी लोगों की छंटनी कर उनसे समाज के गिरते स्तर को बचाकर फिर से ऊपर उठाने पर विचार करना ही होगा। किसी बूजुर्ग का कोल बताते हैं कि जिस कौम की लिडरशिप में अनैतिकता के भाव प्रकट होते नजर आये तो मानो उस कौम का पतन तय है।
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