Edited by Pankaj Sharma, NIT:
लेखक: ममता वैरागी
आज स्वार्थ के वशीभूत होकर मानव ने तरह तरह की कुटिल चाल चलना शुरू कर दिया है। कोई भी किसी भी तरह जब उन्नति करता है तब दूसरे लोगों में एक जलन की भावना का जन्म होता है और उस भावना के तहत सभी व्यक्ति एक दूसरे को नीचा गिराने की कोशिश में लगे रहते हैं, वह यह भूल जाते हैं कि किसी दिन उन पर भी कोई भारी पड़ सकता है। अभी दो तीन ऐसे घटनाक्रम हुए कि दिल सोचने को मजबूर हो गया और बचपन की पढी, विवेकानंद की बात सही साबित हो गई। हूआ यूं कि स्वामी विवेकानंद अमेरिका की यात्रा पर गए थे, वहां एक प्रदर्शनी लगाई गई थी और सभी देशों की उसमें विशेषता बतलाई गई थी। तब किसी ने स्वामी जी को भी कह दिया कि आप भी अपने देश की विशेषता के लिए कुछ रखें, स्वामीजी ने अपने शिष्यों को कहा जाओ जाकर एक शीशे में तीन चार केकडे भरकर यहां ले आओ, और शिष्यों ने यही किया। तब सब बोल पड़े कि महाराज यह आप क्या कर रहे हैं, एक शीशे में केकडे और वह भी बिना ढक्कन के, यह कैसी विशेषता है? यह निकल कर हर जगह फैल जायेंगे, इन्हें हटायें। तब स्वामीजी ने कहा आप सभी घबराइए नहीं, यह नहीं निकलेंगे, यही हमारे देश की विशेषता है। सब आश्चर्य से पुछने लगे तब स्वामीजी ने कहा कि इन केकड़ों के समान हमारे भारत के लोग हो रहे हैं, जिस प्रकार एक केकड़ा बाहर निकलने को होगा कि दूसरा उसकी टांगें खींच लेगा और इस तरह कोई भी केकड़ा बाहर नहीं आ पायेगा। हमारे देश में भी हर जगह यही देखने को मिलने लगा है। एक व्यक्ति की उन्नति होने पर दूसरा उसे नीचे गिराने की कोशिश में लगे हुए हैं और यही अब देश की विशेषता बन गई है। बात यह हे कि हर एक इंसान हैं, दूसरा इंसान दुखी हो रहा है। कुछ तो और बहुत जो इतने नीचे स्तर पर आ जाते हैं कि जलन, ईष्र्या में वह उस ईमानदार, भोले लोगों को भी नहीं छोडते। दिन रात इस अधेड़ बुन में रहते हैं कि कब किस तरह किसी को नष्ट करें। आज यही बात पेपर में पढ़ी तो फिर लगा कि वाकई में बहुत ही बुरा करने में बहुत से लोग अपनी अच्छी बुद्धि को लगा रहे हैं। यही बुद्धि यदि किसी नेक कार्य में लगाई होती तो आज सब सुखी रहते। आज की विशेष बात परीक्षा को लेकर है कि गांव गांव में शासन ने बच्चों को पढ़ाने के उद्देश्य से शालाएं खोली, शासन का उद्देश्य था कि कोई बच्चा शिक्षा की आरंभिकता, फिर प्रारंभिकता से वंचित ना रहे क्योंकि गांव के परिवेश में शिक्षा एक सपना होता है। शिक्षकों को वहां भेजा लेकिन शिक्षकों से तो कोई कुछ पुछता नहीं, क्योंकि वह एक कर्म चारी होते हैं, झट कोई भी उनपर किसी भी तरह का आरोप मढ़ते रहते हैं जबकि हकीकत में रोज शिक्षकों को वहां तक पहुंचने और जाकर ऐसे बच्चों को कुछ बनाने की जिम्मेदारी लें रखी है। और हालात इतने नाजुक रहते हैं कि एक शिक्षक ही उनसे अपनी बुद्धिमानी से निपट कर हर कार्य करता है। तब यहां वह शिक्षक खड़े हो जाते है जो अच्छी शालाओं में होते हैं। या उन्हें पढ़ने वाले बच्चे मिलते है। वह उन प्राथमिक शिक्षकों को हीन समझते हैं, छोटा समझते है और कुछ तो बोला भी करते है। जबकि वह शिक्षक ही वास्तविक रूप से महान होता है जो विपरीत परिस्थितियों में भी परिणाम देता है। जबकि कुछ चिल्ला रहे थे कि मास्टर बता रहा था या पहले बता देता है। अरे मेरे भाई बहनों, किसी को और विशेष कर शिक्षकों पर आरोप लगाने से पहले उन हालातों पर गोर करें जिसमें छोटै छोटे बच्चों को कुछ बतलाना या सीखाना है। हाई स्कूल या हाई सेकंडरी वाले शिक्षकों को बड़े बच्चे मिलते हैं जो खुद समझदार हो जाते हैं। गांव में आज भी माता-पिता शिक्षा को नहीं समझते। बहुत से पिताओं को नहीं मालुम बच्चे दिनभर क्या करते हैं, वह तो सुबह से मजदूरी पर चले जाते हैं और जब शाम को लोटते हैं तब पी कर आते हैं और बेचारे मासूम ऐसे में शिक्षक ही वह धुरी होते हैं जो ऊन्हे कुछ बनाते है। यहां यह कुछ लोग अपना राग अलापते पेपर में भी छपवा देते हैं कि एक मास्टर बेईमान और सारा अमला उस शिक्षक पर टुट पड़ता है जो कि शोभित कार्य नहीं है। जब शासन ने शिक्षकों को बच्चों की जिम्मेदारी दी है फिर वह कब किस परिस्थिति में किस तरह मासूमों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड रहे हैं यह उन शिक्षकों से पुछो। पर शहरों में पढ़े-लिखे माता-पिताओं की संतानों से उन गरीब और साधन हीन परिवार से भी कोई सुख या पढाई नहीं मिलने वालों के पास एक छोटे से कस्बे में शिक्षक जाकर पढ़ाता है जो बहुत बड़ी बात है। उनपर उंगली उठाकर हर वक्त चिल्लाना शोभा नहीं देता। आज के युग में शिक्षक को लाचार असहाय बना रखा है जबकि वह नींव भरने का कार्य कठिन परिस्थितियों में कर रहा है। और यहां यही कहुगी कि हर नीति उल्टी चली, अब और नहीं, शिक्षक शिक्षा का महत्व रहने दो, और ऐसे लोगों पर ध्यान ना दिया जाये जो अपने जलन के स्वभाव के कारण चिल्लाने के काम करते हैं।
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