पीयूष मिश्रा/अश्वनी मिश्रा, सिवनी/भोपाल, NIT; MP अजब है सबसे गजब है, जी हां सुनने में यह जरूर अजब-गजब से कम नहीं है। मध्यप्रदेश देश का ऐसा इकलौता राज्य है जहां रंगे हाथ रिश्वत लेते पकड़े गए या रिश्वत मांगने पर ट्रैप हुए सरकारी अफसर गिरफ्तारी के बाद लोकायुक्त पुलिस द्वारा ही जमानत पर रिहा कर दिए जाते हैं जबकि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (पीसी एक्ट) 1988 में जांच एजेंसी को जमानत देने का अधिकार ही नहीं है। 25 सालों से एंटी करप्शन एक्ट से जुड़े मामलों में पैरवी करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ताओं के मुताबिक पीसी एक्ट नॉन बेलेबल एक्ट है। इसमें रिश्वत लेने और मांगने के लिए धारा 3 और 7 के तहत केस दर्ज किया जाता है, दोनों ही धाराएं गैरजमानती हैं, लेकिन पिछले 15 साल से लोकायुक्त पुलिस भ्रष्टाचार के आरोपियों को गिरफ्तारी के बाद खुद ही जमानत पर छोड़ती आ रही है जबकि देश के अन्य राज्यों में पीसी एक्ट में गिरफ्तारी के बाद भ्रष्टाचारी को कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया जाता है।
15 सालों से लोकायुक्त उड़ा रही है कानून की धज्जियां
मध्यप्रदेश हाईकोर्ट भी हाल ही में कुछ मामलों में लोकायुक्त द्वारा आरोपियों को गिरफ्तारी के बाद तत्काल जमानत पर रिहा किए जाने पर सवाल खड़े कर चुका है, लेकिन लोकायुक्त की ओर से न तो इसका कारण बताया गया है और न ही इस गलती को सुधारने के लिए अब तक कोई कदम उठाया है। लोकायुक्त पुलिस का तर्क है कि साल 2003 में एक अफसर को गिरफ्तार करने के बाद हिरासत में उनकी मौत हो गई थी, तब तत्कालीन लोकायुक्त ने गिरफ्तारी के बाद ट्रैप हुए अफसरों को बांड भरवाकर जमानत पर छोड़ने के निर्देश जारी किए थे, तब से ही यह प्रक्रिया अमल में लाई जा रही है।
क्या होता है गिरफ्तारी के बाद रिहाई का असर?
जांच के दौरान गैरजमानती अपराध में भी खुला रहने पर भ्रष्टाचार के आरोपी अक्सर साक्ष्यों को नष्ट करने और प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। यही कारण है कि मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार से जुड़े मुकदमों में पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में या तो आरोपी बरी हो जाते हैं या सालों तक केस चलने के बाद जीवन के आखिरी पड़ाव पर सजा मिल पाती है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार के मामलों में लोकायुक्त की कार्रवाई उतनी प्रभावी नहीं हो पाती, जितनी आम आदमी को अपेक्षा होती है। केन्द्रीय जांच एजेंसी सीबीआई ऐसे मामलों में आरोपी को गिरफ्तार कर आरोपी को सीधे कोर्ट में पेश करती है। कोर्ट ही जमानत तय करती है।
जांच एजेंसी जमानत नहीं दे सकती, यह कोर्ट के अधिकार का है दुरुपयोग
सीनियर एडवोकेट मुकेश गुप्ता के मुताबिक, प्रीवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट नॉन बेलेवल कानून है। इसमें गिरफ्तार होने पर जांच एजेंसी या अनुसंधानकर्ता जमानत दे ही नहीं सकता है। यह अदालत के अधिकार का खुला दुरुपयोग है। अफसोस की बात यह है कि न्यायपालिका ने इस विषय में लोकायुक्त से जवाब तलब तो किया है, लेकिन किसी भी मामले में अवमानना की कार्रवाई अब तक नहीं की है।
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