साबिर खान, लखनऊ, NIT;उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर जहाँ हर राजनीतिक दल अपने अपने आकडे बिठाने और वोटरों को रिझाने में लगी है वहीं उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी समाजवादी अपने पुराने वोट बैंक को खोती हुई दिखाई दे रही है। सपा में शिवपाल यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है। ऐसे में कभी शिवपाल यादव अखिलेश गुट के लोगों को बाहर कर दे रहे हैं तो कभी अखिलेश यादव जवाबी कार्रवाई करते हैं। ऐसे में सपा की शाख ही दांव पर लगती दिखाई दे रही है।ताजा घटनाक्रम में समाजवादी पार्टी ने जिस तरह मुसलमानों लीडरों को उनके पदों तथा उनके अधिकारों का छीना है उसी क्रम में सपा से दो दशकों से जुड़े एक वरिष्ठ पूर्व राज्य मंत्री एवं जिला अध्यक्ष को हटा दिया गया है, साथ ही गोंडा से मोहम्मद महफूज़ खान को जिला अध्यक्ष पद से हटा दिया गया है। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में दो ही मुस्लिम जिला अध्यक्ष थे, दोनों को पार्टी ने हटा दिया है।मोहम्मद मोहसिन खान वह सपा नेता हैं जिन्होंने उस समय मुलायम सिंह यादव का साथ दिया था जब 1993 में सपा और बसपा ने मिलकर उत्तर प्रदेश मैं सरकार बनायीं थी और जब 1995 में मायावती ने गठबंधन को तोड़कर भजपा केसाथ उत्तर प्रदेश में सरकार बनायी थी, उस वक़्त मोहम्मद मोहसिन खान बसपा के विधायक होते हुए भी गठबंधन टूटने के बाद नेता जी के साथ आ गए और उसके बाद स्टेट गेस्ट हाउस कांड में आरोपी भी बनाये गए और जेल भेजे गए, और आज भी यह मुक़द्दमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। 23 साल पार्टी से वफादारी का यह सिला मिला कि विधायक का टिकट तो दूर, पार्टी ने जिला अध्यक्ष का पद भी छीन लिया है। यह पहली बार नहीं है कि अखिलेश को नीचा दिखाने के लिए चाचा शिवपाल ने ऐसा किया है वह पहले भी ऐसा कर चुके हैं, जिसमें उन्होंने अखिलेश युवा टीम के कई नेताओं को थोक में निकालने का फरमान सुना दिया था।
एक तरफ मुसलमानों को यह आलोचना भी झेलना पड़ती है कि मुसलमान उस पार्टी को वोट देते हैं जिसमें उन्हें भाजपा को हराने की सबसे ज्यादा क्षमता दिखती है, मगर एक सच्चाई और भी है की समाजवादी पार्टी से जुड़े कई कद्दावर नेता और समर्थक किसी वजह से नहीं, सिर्फ मुलायम सिंह तथा अब युवा मुसलमान सिर्फ अखिलेश यादव को पसंद करते है और इतिहास गवाह है कि मुसलमान जिसका समर्थन करता है तो निस्वार्थ भाव से करता है। अगर ऐसा नहीं होता तो मुसलमान सिर्फ समाजवादी या किसी एक पार्टी में ही होते। कोई मुसलमान बसपा ,भजपा ,कांग्रेस इत्यादि सभी में नहीं होते। जो जिस पार्टी से जुड़ा है सो जुड़ा है, नफा नुक्सान नहीं देखता। दूसरी तरफ मुसलमानों के साथ इस तरह का बर्ताव समाजवादी पार्टी का यह फैसला चाचा भतीजे में हुए दो गुटों की ताज़ा तरीन मिसाल है। अब मुख्यमंत्री को यह निर्णय लेना ही पड़ेगा क्योंकि जिस तरह उनकी लोकप्रियता राष्ट्रीय स्तर पर बनी है उसको देखते हुए उन्हें आगे आकर अपने समर्थकों व पार्टी के हितैषियों पार्टी से जोडे रखना है क्योंकि अगर सीनियर लीडरों व पूर्व विधायकों को वह रोके नहीं रख पाये तो आने वाले विधानसभा चुनाव में इस का खमियाजा उन्हें और सपा को भुगतना पड सकता है। बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी चुनाव आमतौर पर जाति और धर्म के आधार पर लड़े जाते हैं।अपवाद तभी होता है जब कोई लहर चल रही हो।
मायावती के पास अनुसूचित जाति का 20 फीसदी मजबूत वोट बैंक है समाजवादी पार्टी के पास करीब 17 फीसदी वोट बैंक है जिसमें यादव (कुल आबादी के नौ फीसदी) और कुछ अन्य पिछड़ी जातियां (ओबीसी) शामिल हैं. इसमें कोई शक नहीं कि ओबीसी की उत्तर प्रदेश में करीब 30 फीसदी आबादी है लेकिन वे एक जाति के रूप में नहीं हैं और न ही सभी सपा के साथ हैं. उदाहरण के लिए ओबीसी में आने वाला दूसरा सबसे बड़ा समुदाय कुर्मी (सात फीसदी) परंपरागत रूप से यादवों का विरोधी रहा है। भाजपा के पास ऊंची जातियों के हिंदू वोट हैं लेकिन ऊंची जातियां यानी ब्राह्मण, राजपूत, बनिया आदि की उत्तर प्रदेश की आबादी में हिस्सेदारी सिर्फ 18 फीसदी है. केवल 18 फीसदी वोटों के दम पर कोई चुनाव नहीं जीत सकता. कम से कम 30 फीसदी तो चाहिए ही. (50 फीसदी जरूरी नहीं है क्योंकि बाकी वोट बंटे हुए होते हैं.)
पिछले विधानसभा चुनाव में मुसलमान सपा के साथ गए थे. अगर इस तरह मुसलमान नेताओ के साथ ऐसा बर्ताव होगा, तो मुझे संदेह है कि इस बार ऐसा होगा. दादरी, मुजफ्फरनगर, बल्लभगढ़ आदि जगहों पर हुए घटनाएं, कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति वावजूद अभी तक मुसलमानों का सपा से पूरी तरह समर्थन मिला हुआ है।
मुसलमानों का जब बसपा से उनका मोहभंग हो चुका था तो विकल्प के रूप में सिर्फ सपा ही बची थी , इसलिए कहा जा सकता है कि पिछले चुनाव में इसीलिए सपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई थी, इस बार वे फिर बड़ी तादाद में सपा को वोट करेंगे इसकी उम्मीद कम ही लगती है घर वापसी, आदित्यनाथ, साध्वी प्राची, साक्षी महाराज, तोगड़िया आदि के नफरत फैलाते भाषणों, दादरी, मुजफ्फरनगर और बल्लभगढ़ की घटनाओं और गौरक्षकों की हरकतों ने यह तय कर दिया है कि इस बार मुस्लिम वोट बंटेंगे नहीं. किसी एक ही पार्टी में ही गिरेंगे अब पार्टी की नीति पर निर्भर करता है वह किस तरह अपने वोट बैंक को सँभालते है.जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो इसका कोई वोट बैंक नहीं है और पार्टी के लिए एक ही रास्ता हो सकता है कि वह मायावती का सहारा ले. ठीक वैसे ही जैसे इसने बिहार में महागठबंधन का सहारा लिया। कुल मिलाकर इस आकलन का निष्कर्ष यह है कि सपा को 17 फीसदी अनुसूचित जातियों के साथ 18 फीसदी मुस्लिम समुदाय का वोट भी मिलेगा. यानी कुल 35 फीसदी वोट के साथ मैदान में है. जो काफी अच्छा समीकरण है।
Discover more from New India Times
Subscribe to get the latest posts sent to your email.