सद्दाम हुसैन, लखनऊ, NIT;
गोरखपुर और फूलपुर के बाद लोकसभा की कैराना और विधानसभा की नूरपुर सीट के उप चुनाव का नतीजों ने बीजेपी के लिए चुनौतियां बढा दी हैं साथ ही उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता की मजबूत नींव की संभावनाएं भी बढा दी हैं, भले ही कैराना व नूरपुर उप चुनाव में भाजपा के विरोध में लड़ रहे उम्मीदवार घोषित रूप से संयुक्त विपक्षी गठबंधन के न रहे हों लेकिन नतीजों ने साफ कर दिया है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा की चुनौती बढ़ेगी। विपक्ष अब अधिक तेजी से एकजुट होने की कोशिश करेगा पर ऐसा नहीं है कि इन नतीजों के बाद विपक्ष की राह अब पूरी तरह आसान हो गई है।दरअसल, गोरखपुर और फूलपुर के बाद लगातार कैराना और नूरपुर में भाजपा को मिली हार कई सियासी संदेश छोड़ गई है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, सबसे बड़ी बात यह है कि 2014 और 2017 के नतीजों से भाजपा के अपराजेय होने की धारणा गोरखपुर, फूलपुर से कैराना व नूरपुर पहुंचकर पूरी तरह टूट गई है। यह भी साफ हो गया है कि विपक्ष के पास मुद्दे हों या न हों, नेता हों या न हों लेकिन जमीनी समीकरणों में भाजपा को पराजित करने का माद्दा मौजूद है। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि लोकसभा की कैराना और विधानसभा की नूरपुर सीट के उप चुनाव में गोरखपुर और फूलपुर की तरह न तो सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव प्रचार करने गए तथा न बसपा सुप्रीमो मायावती ने सार्वजनिक रूप से अपने कोआर्डीनेटरों को विपक्ष की मदद करने का अधिकार दिया था फिर भी भाजपा पराजित हो गई। सहानुभूति के समीकरणों का भी लाभ नहीं मिला। स्वाभाविक रूप से ये सब विपक्ष का उत्साह बढ़ाने वाला है। कैराना की जीत ने एक तरह से चौधरी अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी को प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर से प्रासंगिक बना दिया है साथ ही कहीं न कहीं यह संदेश भी मिला है कि सब कुछ होने के बावजूद जाट समाज के लोगों का समर्थन उनके साथ फिर लौट इन नतीजों के बाद लोकसभा चुनाव में विपक्षी दलों के बीच गठबंधन की संभावनाएं बढ़ गई हैं। पर इसकी राह पूरी तरह निरापद नहीं है। लोकसभा की तीन और विधानसभा की एक सीट के उप चुनाव में जीत हासिल करने के बाद भी यह सवाल आज नहीं तो कल इस एकता की परीक्षा बनेगा कि बसपा या सपा के राष्ट्रीय अध्यक्षों में कौन किसको नेता मानेगा। यही नहीं, 2019 में राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का मुकाबला करने का दावा करने वाली कांग्रेस क्या उत्तर प्रदेश में महज कुछ सीटों पर ही चुनाव लड़कर संतोष कर लेगी। एक वक्त के लिए सभी पार्टियों के नेता परस्पर सहमत भी हो जाएं और संतोष भी कर लें तो क्या इनके अलग-अलग इलाकों में चुनाव लडऩे का सपना देख रहे लोग मान जाएंगे।साफ है कि कैराना ने विपक्षी एकता की संभावनाओं की नींव को तो मजबूत कर दिया है लेकिन उस पर इमारत खड़ी करने की राह में अब भी तमाम चुनौतियां खड़ी हैं।
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