देश में आंदोलन के नाम पर अराजकता, जिम्मेदार कौन??? | New India Times

वी.के.त्रिवेदी, लखीमपुर खीरी (यूपी), NIT; 

देश में आंदोलन के नाम पर अराजकता, जिम्मेदार कौन??? | New India Times​हमारे देश में राजनीति के नाम पर समाज को विभिन्न वर्गों व धर्म सम्प्रदायों को विभाजित करने का क्रम लम्बे समय से चल रहा है। आजादी के समय समाज के दबे कुचले उपेक्षित दलितों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए आरक्षण देने की व्यवस्था की गयी थी तथा दलितों को उत्पीड़न से बचाने के लिए एससी /एसटी एक्ट बनाया गया था। इस कानून में समय समय पर संशोधन भी होते रहे हैं और पीड़ित को मुआवजा भी देने की व्यवस्था की गई है। इस एक्ट की खासबात यह है कि कत्ल ,डकैती ,लूट बलात्कार जैसी घटनाओं में अग्रमि जमानत हो जाती है लेकिन इस एक्ट के मुकदमें में अग्रमि जमानत नहीं होती है भले ही बाद में आरोप निराधार साबित हो जाये। इस एक्ट की चपेट में आम गैर दलितों के साथ ही अधिकारी कर्मचारी भी आते हैं और दलित एक्ट की आड़ में उन्हें ब्लैकमेल और प्रताड़ित किया जाता रहा है। इसी तरह के एक दलित उत्पीड़न के मुकदमे में गत माह सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए एक्ट को शिथिल बना दिया था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद दलित राजनीति करने वालों को आगामी लोकसभा चुनाव के लिये मुद्दा मिल गया है और इस फैसले की आड़ में सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया गया है। इतना ही नहीं इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्वरूप देकर चुनावी फायदा लेने के लिए सोमवार को भारत बंद करके जिस तरह से अराजकता फैलाई गई है उसे किसी भी तरह से लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है। लोकतंत्र में विरोध करना मौलिक अधिकारों में आता है लेकिन विरोध लोकतांत्रिक मर्यादाओं के तहत होना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में हिंसा, तोड़फोड़, आगजनी के लिये कोई जगह नहीं होती है। राजनैतिक लोगों को हिंसा तोड़फोड़ और समाजिक विद्वेष से होने वाले दुष्प्रभावों से कोई मतलब नहीं होता है उन्हें तो सिर्फ अपनी राजनीति चमकाने से मतलब होता है। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में जिस तरह अराजकता पैदा करके एक सुनियोजित तरीके से धार्मिक जातीय उन्माद भड़काने का प्रयास किया गया उसे कतई लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में दलित एक्ट को खत्म नहीं किया है बल्कि उसे न्याय संगत बनाकर समाजिक न्याय किया है। न्याय कहता है कि भले ही अपराधी छूट जाए लेकिन निरपराध को सजा नहीं मिलनी चाहिए। जो सुप्रीम कोर्ट ने अब कहा है वहीं तो बसपा सुप्रीमो अपनी दूबारा बनी सरकार में भी कह चुकी हैं। बसपा सरकार ने साफ कहा था कि दलित उत्पीड़न के मुकदमें सीधे न दर्ज करके पहले उनकी जाँच कराकर आरोप की पुष्टि की जाये। यह बात भी सिद्ध हो चुकी है कि दलित उत्पीड़न की अधिकांश शिकायतें झूठी और बदले की भावना से प्रेरित होती हैं। यहीं बात सुप्रीम कोर्ट ने भी कही है कि पहले शिकायत की जाँच वरिष्ठ सक्षम अधिकारी से कराने के बाद ही दलित एक्ट का मुकदमा दर्ज करके कार्यवाही की जाये। उत्पीड़न होता है चाहे दलित के साथ हो चाहे सामान्य वर्ग के साथ हो।हमारा संविधान समाज में समानता का पक्षधर है और हर किसी को बराबरी का हक मिला है। यह सही है कि आज भी कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ पर उत्पीड़न होता है और कमजोर अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित किया जाता है। अल्पसंख्यक से हमारा मतलब मुसलमान से नहीं बल्कि उनसे है जो संख्या कम होने के नाते प्रताड़ित किये जाते हैं। अभी पिछले दिनों अलीगढ़ में जातीय हिंसा हो चुकी है और तमाम नुकसान हो चुका है। समाज में हिंसा एवं वैमनस्यता फैलाकर वर्ग विशेष को भड़काना समाज विरोधी है और इससे हमारी एकता अखंडता प्रभावित होती है।


Discover more from New India Times

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

By nit

Discover more from New India Times

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading