Edited by Arshad Aabdi, झांसी (यूपी), NIT;
लेखक: सैय्यद शहंशाह हैदर आब्दी
दूसरों की कमियां गिनाकर, कोई व्यक्ति समाज अथवा संगठन आगे स्थाई उन्नति कर सकता है?
होली के पावन रंगीन पर हार्दिक शुभकानाओं के साथ – ज़रा ठहरिये और मंथन कीजिए…
“शहर जल सकते हैं उड़ती हुई चिंगारी से,
कोई मज़हब कभी फलता नहीं ख़ूख़्वारी से।
आग होली की उछालें न कहीं फ़िरक़ापरस्त,
दोस्तो, रंग जमाये रहो पिचकारी से।”
आज जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का जहाँ नाम आएगा तो बात सोशल इंजीनियरिंग और देश विदेश में नाम रोशन करने वाले छात्र छात्राओं की नहीं होगी, बात नक्सलियों और अराजक तत्वों की होगी।
नाम राहुल फीरोज़ गाँधी का आयेगा तो एक तबका बहस को इटली की तरफ मोड़ देगा और एक उन्हें फीरोज़ खान (फ़ीरोज़ जहांगीर गांधी, पारसी नहीं) मुसलमान का वंशज साबित करने लगेगा।
चर्चा नरेन्द्र दामोदर दास मोदी पर होगी तो बात दंगों तक पहुंचेगी, उन्हें चंद पूंजीवादियों की कठपुतली, बीवी को छोड़, घर से चोरी कर भागने वाला, और से बड़ा झूठा साबित किया जाने लगेगा।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की बात शुरू कीजिये तो बात हाफ पेंट से लेकर स्वतंत्रता संग्राम में संघ की भूमिका से होती हुई, महात्मा गांधी की हत्या, नाथूराम गोडसे और साम्प्रदायिक दंगों तक पहुंचेगी।
और महात्मा गाँधी की बात की तो उनके ब्रह्मचर्य के प्रयोग से लेकर बिरला तक की दंत कथाओं में बहस उलझ जाएगी। देश के बंटवारे का उन्हें दोषी और मुस्लिम समर्थक सिध्द कर दिया जायेगा।
इस देश में दलित का मतलब कोटा,
मुसलमान का मतलब आतंकवादी पाकिस्तान परस्त, ब्राह्मण का मतलब मनुवादी सिर्फ अपने हित साधने के लिये किसी से भी समझौता करने को तैय्यार,
बनिया का मतलब, मुनाफाख़ोर, मिलावट करने वाला , कश्मीरी यानि अलगाव वादी, देशद्रोही,पाकिस्तान परस्त और नार्थ ईस्ट का मतलब चिंकी, नक्सली है ….. नेपाली .. सबके लिए सिर्फ ‘बहादुर’ नाम हो गया है ।
हिन्दुस्तानी ईसाई और मुसलमान सभी धर्म परिवर्तन किये हैं और देश के प्रति इनकी निष्ठा संदिग्ध है।
शिया मुसलमान..संघ और भाजपा समर्थक, बिदअत और शिर्क करने वाले, सुन्नी मुसलमान कट्टरपंथी, वहाबी मुसलमान आतंकवाद के पैरोकार।
पत्रकार हैं तो दलाल कहने में क्या हर्ज है?
पुलिस वाले और सरकारी कर्मचारी है तो यक़ीनन बे-ईमान, कामचोर और भ्रष्टाचारी हैं। प्रायवेट प्रेक्टिसिंग डाक्टर हैं तो लुटेरे हैं और ठेकेदार हैं तो गुंडे हैं माफिया हैं।
अगर युवती मॉडल,एंकर, अदाकारा, ऐयर होस्टेस, रिसेप्शनिस्ट, नेता, नौकरी पेशा , सिंगल लिविंग या तलाक़शुदा हैं फिर तो चालू और सुगमता से उपलब्ध है। महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध और बलात्कार में इस सोच का बड़ा योगदान है।
दलितों ने सवर्णों को एंटी दलित मान लिया है। ब्राह्मण अब तक खुद को चाणक्य ही मान रहे हैं। ठाकुर की अपनी बेचैनियाँ हैं। बनिया अपनी परेशानियों से उबर नहीं पा रहा।
मुसलमानों को हिन्दु बस्ती में मकान मिलना मुश्किल है। अगर मिल भी जाये तो वो किसी हिन्दू बस्ती में रहना नहीं चाहते। हिन्दू किसी मुस्लिम बस्ती में रहने को तैय्यार नहीं।
ऐसी सोच को हम में से कुछ तथाकथित सभ्य लोग भले ही सार्वजनिक तौर प्रकट करने से हिचकें। लेकिन मानसिक रूप से ये सोच हमारे समाज को एक नेगेटिव सिंड्रोम डिसऑर्डर में ले जा रही है। 70 साल के बाद ये बीमारी घटी नहीं और बढ़ी है।
उधर लेफ्ट, राईट की विचारधारा एक दूसरे पर हमले का कोई मौक़ा नहीं चूकतीं और एक दूसरे की वंशावली बताते हुए देश और समाज के लिये हानिकारक मानती हैं।
लेफ्ट ..एक्सट्रीम लेफ्ट हो रहा है.
राईट ..एक्सट्रीम राईट …
और शायद सेंटर.. आउट हो गया है।
मोदी की बीजेपी देश में कांग्रेस मुक्त भारत चाहती है। राहुल की कांग्रेस को हर क़ीमत पर सत्ता चाहिए।
‘समाजवादी पार्टी’, ‘राष्ट्रीय जनता दल’, ‘अकाली दल’, ‘शिवसेना’ ‘नेशनल कांफ्रेंस’ ‘पी.डी.पी’और ‘राष्ट्रीय लोकदल’ वंशवाद को बढ़ावा देने वाली पार्टियां, ‘आप’ को शासन करना नहीं आता। बहुजन समाज पार्टी नहीं, टिकट की सौदागर है। किसी को किसी की ख़ूबियाँ नज़र ही नहीं आतीं। सब एक दूसरे की दुखती रग पकड़कर आगे बढ़ना चाहते हैं।
हमारा मानना है कि इस नेगेटिव सिंड्रोम में जी कर या फंसकर कभी आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
क्यूँ नहीं कोई इस बात पर विचार करता कि हम बिखर रहे हैं? हम एक दूसरे से अलग हो रहे हैं।
हमारा समाज धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के ख़ोलों में बंद होता जा रहा है।
धर्म – अनुशासित जीवन जीने, मानवता और प्रकृति की भलाई का कारण न होकर अपने को श्रेष्ठ सिध्द कर एक दूसरे धर्मावलंबियों की जान लेने और सत्ता हासिल करने का माध्यम बनते जा रहे हैं।
कहां तक गिनायें हर किसी की कमियां और ख़ामियां हमारी ज़ुबान पर है।
फर्क़ इतना है कि कुछ लोग अनायास सामने बोल देते हैं और बाकी पीठ पीछे बोलने से नहीं चूकते।
किसी की कमज़ोरियां भी किसी से छिपाई नहीं जातीं। और मौक़े पर वही कमज़ोर नस दबाकर अपना हित साधा जाता है।
कहां है राष्ट्रवाद और सर्व धर्म समभाव?
गरज़ यह कि नज़र सबकी ख़ामियों पर है किसी की ख़ूबियों पर नहीं।
दोस्तो सोचियेगा…
कुछ देर इन बंद ख़ोलों से बाहर निकल कर अपने गिरेबान में झांकियेगा।
फिर सोचिएगा, बार बार सोचिएगा……..
दूसरों की दुखती रगों को छेड़कर कोई समाज, कोई देश और कोई धर्म आगे बढ़ सकता?
सामाजिक और धार्मिक महत्व के इस रंग बिरंगे राष्ट्रीय पर्व पर राष्ट्र हित, सर्व धर्म – समभाव, मानव और प्रकृति कल्याण का थोड़ा सा भी जज़्बा, आपके और हमारे नकारात्मक विचारों और उनके क्रियान्वयन में शायद कुछ सकारात्मक बदलाव ले आये और हम सब मिलकर कुछ अच्छा कर सकें, अपने अज़ीम मुल्क के लिये, यहां के बाशिंदों के लिये, इंशाअल्लाह। आमीन।।
” रंगीन फ़िज़ाओं मे है मसरूर की होली,
अपने ही पसीने से है मज़दूर की होली।
हर रंग में हम रंग रहो, रंग यही है,
दिल, दिल से मिलें है यही जम्हूर (लोकतंत्र) की होली।”
सभी प्यारे देशवासियों को होली मुबारक।
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