वी.के. त्रिवेदी, लखीमपुर खीरी (यूपी), NIT; भारत कभी कभी ऐसे सच्चे सपूतों को पैदा करती है जो उसकी आन-बान-शान के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दुनिया के लिए मिसाल कायम कर ऐतिहासिक महापुरुष हो जाते हैं। ऐसे भारत माता के सपूत अपने देश की मान मर्यादा के लिये अपना घर परिवार बीवी बच्चे सब कुछ छोड़कर देश की आजादी और अक्षुण्णता के लिये हंसते हंसते सब कुछ बर्दाश्त कर लेते हैं। कल हमने आपने भारत माता के ऐसे ही एक सपूत नेताजी जी के नाम से मशहूर सुभाषचंद्र बोस की जयंती मनाई है और उनकी बहादुरी देशभक्ति को नमन किया है। नेता जी का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक, उड़ीसा में जानकीनाथ बोस वकील और माता प्रभावती देवी के आंगन में हुआ था। जिस समय सुभाषचंद्र बोस पैदा हुए उस समय उनके माता पिता परिवार वाले ही नही बल्कि धरती भारत माता भी खुश हुयी थी। नेता जी काफी पढ़ें लिखे थे और स्वामी विवेकानन्द के विचारों के प्रबल समर्थक होने के कारण उनके दिलों दिमाग में राष्ट्रभक्ति की भावना का उदय हुआ था। नेता जी ने 1913 में मैट्रिक परीक्षा में द्वितीय स्थान,1915- इंटर मीडिएट, प्रेसीडेंसी कालेज, कलकत्ता से, 1919 में दर्शनशास्त्र में प्रथम श्रेणी में बी.ए. आनर्स की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। नेताजी ने 15 सितम्बर 1919 को आई सी एस परीक्षा के लिए इंग्लैण्ड गये थे। सितम्बर 1920 में आई सी एस की परीक्षा में चतुर्थ स्थान तथा अंग्रेज़ी में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। देशभक्ति की प्रबल भावना के वशीभूत होकर अंग्रेजों की नौकरी के प्रति नफरत पैदा हो गयी और 22 अप्रैल 1921 को उन्होंने आई सी एस की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था।16 जुलाई 1921 को महात्मा गांधी से भेंट हुयी और उनसे राष्ट्रसेवा का व्रत लेकर अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गये और असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। 25 अक्टूबर 1924 को उनकी गिरफ्तारी करके उन्हें रंगून की जेल में बन्द करके यातनाएं दी गईं। मई 1927 में उन्हें जेल से रिहा गया और दिसम्बर 1927 को बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष के रुप में उन्हें चुन लिया गया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने नवम्बर 1928 में जवाहरलाल नेहरू के साथ “इंडिपेंडेंस आफ इण्डिया लीग” का गठन किया। इतना ही नहीं उस भारत मां के लाडले ने 26 जनवरी 1930 को प्रथम स्वतंत्रता दिवस मनाया था। सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण उन्हें जनवरी 1932 में पुनः गिरफ्तार कर लिया गया और 13 फ़रवरी 1933 को यूरोप चले गये थे। इस निर्वासन के दौरान उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए पूरे यूरोप का दौरा करके व्यापक जनसमर्थन प्राप्त किया। दिसम्बर 1934 में पिता की मृत्यु पर जब उनकी कलकत्ता वापसी हुयी तो घर में ही उन्हें नजरबन्द कर दिया गया था। जनवरी 1935 में वह अंग्रेजों को चकमा देकर घर से निकल कर यूरोप पहुंच गये थे, जहाँ से स्वरचित पुस्तक ‘द इंडियन स्ट्रगल’ का लन्दन से प्रकाशन करवाया। जनवरी 1936 को जब उनकी भारत वापसी हुयी तो उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया। मार्च 1937 में गिरते स्वास्थ्य के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया था। जनवरी 1938 में उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष तथा फ़रवरी 1938 में उन्हें हरिपुरा कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष के रुप मे सम्मान दिया गया और 1939 में गांधी जी के विरोध के बावजूद गांधी जी समर्थित उम्मीदवार पट्टाभि सीतारामैया के सामने कांग्रेस के दोबारा अध्यक्ष बने थे। कहते हैं कि त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में गांधीजी के मौन विरोध से खिन्न होकर अप्रैल 1939 में अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देकर कांग्रेस के भीतर ही ‘फारवर्ड ब्लाक’ का गठन कर लिया गया था। लगातार गिरफ्तारी से तंग आकर नेता जी 17 जनवरी 1941 की रात में रूप बदलकर जियाउद्दीन’ नाम से देश से फरार हो गये थे। दिसम्बर 1941 को बर्लिन में ‘फ्री इंडिया सेंटर’ की स्थापना की और ‘जय हिन्द’ अभिवादन परम्परा की शुरुआत की। ‘नेताजी’ की उपाधि उन्हें मई 1942- एडोल्फ हिटलर से मिली थी। नेताजी के 3 जुलाई 1943 को रास बिहारी बोस के साथ सिंगापुर पहुंचने पर ‘आजाद हिन्द फौज'(इंडियन नेशन आर्मी) के अफसरों और ‘इंडियन इंडिपेंडेंस लीग’ के सदस्यों द्वारा भव्य स्वागत किया गया। 5 जलाई 1943 नेता जी ने “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा” तथा ‘दिल्ली चलो’ का उद्घोष किया था और 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में ‘अंतरिम आजाद हिन्द सरकार’ का गठन किया था। 29 दिसम्बर 1943 को उन्होंने अंतरिम आजाद हिन्द सरकार के राष्ट्राध्यक्ष के रूप में अंडमान में तिरंगा फहराया था। अंडमान को ‘शहीद द्वीपसमूह’ और निकोबार को ‘स्वराज द्वीपसमूह’ नाम देकर आजाद हिन्द फौज सेना को भारत की स्वतंत्रता के लिए 18 मार्च 1944 को जापानी सैनिकों के साथ ब्रह्मपुत्र घाटी के रास्ते भारत में बलपूर्वक प्रवेश करके कोहिमा और इम्फाल में विजय हासिल करने के आदेश दिया। 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से प्रसारण द्वारा गांधी जी को ‘राष्ट्रपिता’ नाम से सम्बोधित किया था। 23 जनवरी 1945 में रंगून में नेताजी को सोने के आभूषणों से तुलादान किया गया था।15 अगस्त 1945 में जापान द्वारा आत्मसमर्पण के बाद सेना को और मनोयोग से संघर्ष करने का सन्देश दिया था। 23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो द्वारा घोषणा की गयी थी कि जापानी बमवर्षक विमान में सवार नेताजी का विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने से 18 अगस्त 1945 को ताइवान में निधन हो गया है। नेता जी सुभाषचंद्र बोस की मौत को लेकर आजादी के समय से ही तरह तरह की बातें कहीं जा रही हैं और आयोगों का गठन भी हो चुकी है। अस्सी के दशक में फैजाबाद में हुयी गुमनामी बाबा की मौत के बाद उनके पास से तमाम ऐसे साक्ष्य मिले थे जो उनके नेता जी होने की ओर संकेत कर रहे थे। नेता जैसे भारत माता के सच्चे हीरा सपूत की जिन्दगी का सौदा करके ली गयी आजादी शायद उनकी गुमनामी का कारण बन गयी।
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