ऐ रहबरे मुल्क व क़ौम बता, यह किसका लहू है कौन मरा? | New India Times

अरशद आब्दी, झांसी (यूपी), NIT; ​ऐ रहबरे मुल्क व क़ौम बता, यह किसका लहू है कौन मरा? | New India Times

लेखक: सैय्यद शहंशाह हैदर आब्दी

हमारा देश अनन्य विचार धाराओं का समूह है, जहां सभी को अपनी अपनी स्वतन्त्र संस्कृति जीने, उसे बचाए और बनाए रखने का और विस्तारित करने का अधिकार भी है। मगर दु:ख होता है जब इस अधिकार का फ़ायदा उठाने में कुछ लोगों के पेट में मरोड़ उठने लगती है और वे हिंसक हो उठते हैं। तकलीफ तब भी होती है जब कुछ लोग इस अधिकार का बेजा फ़ायदा उठाने लगते हैं। दोनों ही स्थितियों में नुकसान निर्दोषों का, समाज का और देश का होता है।​ऐ रहबरे मुल्क व क़ौम बता, यह किसका लहू है कौन मरा? | New India Timesअंग्रेजों की महार बटालियन और पेशवाओं के बीच महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में हुए युद्ध के 200 साल पूर्ण होने के उपलक्ष पर पुणे में दलित रैली का आयोजन हर वर्ष होता है, इस बार भी हुआ जिसका नाम था ‘एल्गार परिषद’।

क्यूंकि महार जाति संविधान के मुताबिक दलित श्रेणी में आती है इसलिए अम्बेडकरवादी इस युद्ध को उच्च जाति पर दलितों की विजय के रूप में देखते हैं। उनके मुताबिक केवल 500 महार ने 25000 पेशवाओं को मार दिया। 

दो सदी पूर्व लड़ी गयी ‘भीमा कोरेगांव ‘ लड़ाई के जश्न के बहाने इस वर्ष जो कुछ हुआ वो सरासर देश के संविधान का एक बार फिर उल्लंघन है। लेकिन यह भी कटु सत्य है कि  देश में कुछ लोग और संगठन प्रारम्भ से ही अपने आप को देश के संविधान से ऊपर मानते हैं। अपने निहित स्वार्थों की  ख़ातिर शासन, प्रशासन, और वोटों की ख़ातिर सत्ताधारी और अन्य राजनीतिक दल इन्हें शरण देते हैं। सभी की कथनी और करनी में ज़बरदस्त अंतर है। नारे बड़े लुभावने गढ़े जाते हैं, हकीकत होती बिल्कुल उलट है। हिन्दू एकीकरण का नारा देकर वोट बटोरने वाले ज़मीनी स्तर पर जातीय खाई अब भी नहीं पाट पाए हैं। पुणे में हुई दलित – मराठा झड़प, जिसे मीडिया के एक वर्ग ने दलित – हिन्दू दंगा भी बताया, इसका ज्वलंत उदाहरण है। क्या दलित हिन्दू नहीं?  या वोट देने के बाद उनका मज़हब बदल जाता है?

सच बताईये, “सबका साथ –सबका विकास” का नारा देनी वाली पार्टी समेत, कौन सी ऐसी राजनीतिक पार्टी है , जो टिकट देते वक़्त जातीय आंकड़ों को सर्वोच्च प्राथमिकता नहीं देती ? कम्युनिष्ट पार्टी अपवाद हो सकती हैं, लेकिन उनके जनाधार सिमटने का एक कारण जातीय समीकरण न बिठाना भी है।​ऐ रहबरे मुल्क व क़ौम बता, यह किसका लहू है कौन मरा? | New India Times

पुणे  दंगा …… लोकतंत्र के चौराहे पर प्रजातंत्र की नीलामी, देश के संविधान का पुनः चीरहरण ?

दोषी कोई भी हो वहां मर तो रही है इन्सानियत, कहने से काम नहीं चलेगा। यह होता है और होता रहेगा जब तक हम मज़हब और ज़ात के नाम पर नफरत की सियासत करने वालों की पुश्तापनाही करते रहेंगे।

दोषारोपण का दौर शुरू हो चुका है।  संभाजी भिड़े, मिलिंद एकबोते, उमर खालिद और जिग्नेश मवानी की भूमिका संदेह के घेरे में है, इनके विरुध्द नामज़द रिपोर्ट दर्ज हुई हैं। श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी ने जिस संभाजी भिड़े को अपना गुरू बताया था, उन्हें एक पक्ष दंगोंका मास्टर माइंड बता रहा है। 

श्री संजय ब. प्रखर , संपादक हिंदू वॉइस (मुंबई) अपने एक लेख में इसे सवर्णों के विरुध्द साज़िश बताते हैं, इस कार्यक्रम में शरीक होने वालों को हिन्दू विरोधी मोर्चा बताते हुए  लिखते हैं,” आंबेडकरवादियों की एकता और संघठन को देखकर विचार आया की पिछले 3.5 साल में भाजपा और संघ ने हिन्दुओं को संगठित करने का प्रयास भी नहीं किया।  फिर कैसे मुकाबला करेंगे हम इस हिन्दू-विरोधी मोर्चे से ?

2014 में जो हिन्दू एक हुए थे वो भाजपा और संघ के कारण नहीं,बल्कि सोशल मीडिया के कारण हुए थे । तब हमारी किस्मत साथ दे गयी।

लेकिन इन 3.5 सालों में भीम-मीम मोर्चे ने अपनी strategy सुधारली है।

किन्तु हम हिन्दू अभी भी सिर्फ यूनिटी की ही बाते कर रहे है। संगठन तो दूर की बात है, गाली नहीं दूं भाजपा और संघ को तो क्या करूं? 2014 में समर्थन किया, इसलिए नहीं की वे मुसलमानों के वोट के पीछे भागे।

अभी भी मौका है. भाजपा की ज़िम्मेदारी है की हिन्दुओं को संघठित करें (ये काम भाजपा बेहतर कर सकती है क्यूंकि सरकार उनकी है। भाजपा अगला चुनाव हारी या गठबंधन सरकार बनी तो भारत तोdoomed है। और इसके लिए मैं मोदी और भाजपा को ही जिम्मेदार मानूगां ,क्योंकि राष्ट्रवाद हो या हिंदुत्व दोनो एक दूसरे के पूर्वक हैं। और दोनों की रक्षा का प्रण भाजपा ने किया है। ..”

वहीं दलित चिन्तक श्री कँवल भारती सोशल मीडिया पर अपनी एक पोस्ट में लिखते हैं,” बताओ तुम नफरत क्यों करते हो? कोई भी हिन्दू गुरु और नेता हमें यह समझाने में कामयाब नहीं हुआ है कि अगर हम हिन्दू हैं तो हमें मारा क्यों जाता है?

हमें महाद में मारा गया, जहाँ हमने सार्वजनिक तालाब से पानी लेने का प्रयास किया.

हमें नासिक में मारा गया, जहाँ हमने मन्दिर में प्रवेश करना चाहा।

और तो और जब हमने राजनीतिक अधिकारों की मांग की, तो देशभर के हिन्दू हमारे दुश्मन बन गये, क्यों किया था तुमने ऐसा?

तुमने हमें पढ़ने नहीं दिया, पक्का घर नहीं बनाने दिया, साफ़ कपड़े नहीं पहिनने दिए, साइकिल पर नहीं चढ़ने दिया, और कहते हो हम हिन्दू हैं. 

हम हिन्दू नहीं हैं।

आज़ादी से पहले के अत्याचारों को छोड़ भी दें, तो उसके बाद से लगातार हम पर हमले किये जा रहे हैं, काटा जा रहा है, मारा जा रहा है, जलाया जा रहा है. बर्बाद किया जा रहा है. क्या-क्या ज़ुल्म नहीं किया जा रहा है?

अच्छा यह बताओ—

कि दलितों पर अत्याचार में ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया सब एक क्यों हो जाते हैं?

हिन्दुओं तुम यह भी बताओ कि तुम्हारी नफरत का कारण क्या है? 

दलितों ने तुम्हारे साथ ऐसा कौन सा ज़ुल्म किया है कि सदियों से तुम सब मिलकर उसका बदला ले रहे हो?

कोरेगाँव में दलितों के आयोजन में भगवा पलटन क्या करने गई थी?

यह कौन सी नफरत है जो तुम्हें बार-बार दलितों को मारने के लिए उकसाती है? 

हम तुम्हारी इस नफरत का स्रोत जानना चाहते हैं?

कोई तो कुछ बताओ? 

यह नफरत तुम्हें कहाँ से मिली? 

तुम हमसे ही नहीं, अपने सिवा सबसे नफरत करते हो—

तुम मुसलमानों से नफरत करते हो, ईसाईयों से नफरत करते हो, आदिवासियों से नफरत करते हो? 

क्यों करते हो? क्या इन लोगों से तुम्हारी नफरत का सिरा दलितों से जुड़ा हुआ है?

क्या नफरत के सिवा भी तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है?

नफरत के सौदागरों,

अब बहुत हो चुका।

क्या तुम्हारे आक़ाओं को नहीं दिख रहा है, कि तुम्हारी नफरत का जवाब अगर नफरत से देने का सिलसिला शुरू हो गया, तो क्या होगा?

कायरों सत्ता का सहारा लेते हो?

पुलिस को अपना हथियार बनाते हो?

इससे तुम नफरत को और हवा दे रहे हो।

अगर तुम पीढ़ी-दर-पीढ़ी नफरत पाल सकते हो, तो समझ लो, दलितों में भी तुम्हारे लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी नफरत भरती जा रही है।

इस नफरत को लेकर कैसा भारत बनाना चाहते हो—

संघियों, भाजपाइयों, हिन्दुओं !”

यक़ीनन दोनों महानुभावों के पूरे लेख में एक दूसरे के प्रति नफ़रत को खूब हवा दी गयी है। हम ने अपनी बात को सिध्द करने के लिए आवश्यक संपादित अंश का हवाला दिया है। दोनों लेख भड़काऊ बातों और नफरत से भरे पड़े हैं। हम दोनों के विचारों से सहमत नहीं हैं।  

आज देश से उलफत करने वाला, सर्व धर्म –समभाव में विश्वास रखने वाला आम नागरिक स्तब्ध और दु:खी है। वह असमंजस में जी रहा है। उसकी मूलभूत समस्याओं को सुनने सुनाने और उनका हल ढ़ूंढने की किसी पास फुरसत नहीं है।  

अजीब विडम्बना है , दुनिया हर रोज़ लगातार अधिक बहुरंगी और बहुभाषाभाषी हो रही है। हम सब नए-2 तरीकों से जैसे तैसे तालमेल बनाकर जीने की कोशिश कर रहे हैं। सर्व धर्म समभाव, धर्मनिरपेक्षता, अनेकता में एकता, गंगा जमुनी तहज़ीब हमारे अज़ीम मुल्क की विशेषता रही है। उसे दूसरे मुल्क अपना रहे हैं। 

ऐसे में जबरन इकधर्मी, इकरंगी हज़ारों साल पुरानी संस्कृति विशेष की शेखी के मार्फ़त हम कहीं नहीं पहुँच सकते।  जिस समय हमारे महाराष्ट्र में उठी जातीय हिंसा की आंधी देश में सुर्खियाँ बन रही है, बाक़ी दुनिया में सूचना, ऊर्जा उत्पादन, यातायात के साधन और तकनीक में सकारात्मक बदलाव की बातें हो रही हैं। 

अफसोस यही है कि हमारे देश की हर संस्था और व्यवस्था में साम्प्रदायिक मानसिकता के कुछ व्यक्तियों ने अपनी जड़ें मज़बूत कर ली हैं। यह लोग अपने और अपने आक़ाओं के निहित स्वार्थो की पूर्ति के लिये समय -2 पर सेवा क़ानूनों, न्यायिक और संवैधानिक व्यवस्था के साथ देश की सांझा संस्कृति और विरासत  का मख़ौल उड़ाते रहते हैं। राजनेता भी इनका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। इस हक़ीक़त को हम जितनी जल्दी समझ जायें उतना अच्छा।

जातीय वैमनस्यता का जिन्न पुणे के भीमा कोरेगांव नामक स्थान पर एक बार फिर दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा और उसके जवाब में महाराष्ट्र बंद के रूप में बाहर आया है। यह न केवल दुर्भाग्य पूर्ण है बल्कि चिंता जनक भी है। सामाजिक ताने बाने को चोट पहुंचाने वाली घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। राजनीतिक दल अपनी सुविधानुसार, अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति और वोटो की ख़ातिर इन्हें संरक्षण दे रहे हैं। इनके विरूद्ध सख़्त कार्यवाही नहीं होने दे रहे। कोई भी दल इससे अछूता नहीं। याद रखिये, किसी भी कारण से देश जातीय, धार्मिक वैमनस्यता की चपेट में आया तो इसके परिणाम सबको भुगतने पड़ेंगे।

भ्रष्टाचार, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, अलगाववाद और आतंकवाद एक दूसरे के पूरक हैं । हमें इनके दोषियों को चिन्हित कर बिना भेदभाव के दण्डित करना और कराना होगा। सिर्फ दोषारोपण से काम नहीं चलेगा। हम सबको अपनी कथनी और करनी में विशाल अंतर को बिलकुल समाप्त करना होगा, विशेष कर धार्मिक और राजनीतिक दल और इनके नेताओं को।

यह कड़वी हक़ीक़त है कि जब-2 मज़हब का इस्तेमाल सत्ता हासिल करने अथवा उसे मज़बूत करने के लिये किया गया, इंसानियत खून के आंसू रोई है। शासक चाहे किसी भी काल, युग, समाज अथवा धर्म का हो।  वर्तमान में फिर यही किया जा रहा है।

सत्ता के लिये, देश की गौरवशाली परंपरा को तहस नहस करने की साज़िशें की जारही हैं। दंगों के मास्टर माइंडों को राजनीति में अहम भूमिका सौंपी जारही है।

ऐसे मामलों में प्रधानमंत्री जी की चुप्पी पर सवाल खड़े होना स्वाभाविक  है?

देश की अवाम पूछ रही है।

  • “रहबरे मुल्क व क़ौम बता,  
  • ये किसका लहू है ? कौन मरा? 
  • किस काम के हैं ये दीनो धरम?
  • जो शर्म का दामन चाक करें।
  • किस तरह की है ये देश भक्ति?
  • जो बसते घरों को ख़ाक करे।
  • ये रूहें कैसी रूहें हैं ? 
  • जो धरती को नापाक करें।
  • आँखें तो उठा, नज़रें तो मिला,
  • ऐ रहबरे मुल्को क़ौम बता, 
  • ये किसका लहू है ? कौन मरा?”

आज आलम यह हो गया है कि: 

  • “माना कि अभी मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं,
  • मिट्टी का भी है मोल मगर इंसानों की क़ीमत कुछ भी नहीं।“

देश वासियो होशियार-ख़बरदार। हमें अपनी और अपने देश की मुस्कुराहट की हर क़ीमत पर हिफाज़त करनी है।

जिन्हें अज़ीम हिन्दुस्तान की मिली जुली तहज़ीब और संस्कृति रास नहीं आ रही वो अब भी पाकिस्तान भूटान और नेपाल जा सकते हैं, क्योंकि वहां उनके मज़हबों की हुकुमतें हैं।

हिन्दुस्तान के झण्डे का रंग तिरंगा है और तिरंगा ही रहेगा, इसे एकरंगा बनाने की हर कोशिश को आम हिन्दुस्तानी हर हाल में नाकामयाब कर देगा।

सैय्यद शहनशाह हैदर आब्दी,समाजवादी चिंतक –

झांसी


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