लेखक: शेख नसीम
भोपाल; NIT; तीन तलाक का विधेयक संसद में पास हो गया है। अगर यही विधेयक बिना किसी काट- छांट के राज्यसभा में भी पास हो जाता है तो सोचने वाली बात ये है कि क्या इस क़ानून का दुरूपयोग नहीं होगा?
जिस तरह से दहेज़ – प्रताड़ना, घरेलु- हिंसा और भरण- पोषण के क़ानून का दुरूपयोग हो रहा है, पत्नी की पति से जरा सी कहासुनी दहेज़, प्रताड़ना और घरेलु हिंसा का रूप ले लेती है, पत्नी अपने घर वालों के कहने में आके पुरे परिवार पर झूठा केस दर्ज करवा देती है और फिर पूरे परिवार को ब्लैक- मेल करती है, फिर नतीजा यह होता हैं की पति अपने घर वालों की खातिर झूठे केस में समझोता कर लेता है। बात हज़ारों में नहीं लाखों में तय होती है। बेचारा पति अपने आपको और अपने परिवार वालों की खातिर लोगों से कर्जा लेकर पत्नी की नाजायज मांग को पूरा करता है और यह कर्जा चुकाते- चुकाते वो इस दुनिया से चला जाता है।
चैन सुकून ,राहत, आराम किसे कहते हैं उसे मालूम ही नहीं होता। ऐसे ही भरण, पोषण के केस में अगर पति अपनी पत्नी को रखना भी चाहे तो नहीं रख सकता। पत्नी को तो बस पति के पैसों से प्यार हैं। इसलिए अदालत में पत्नी कह देती है मुझे इससे जान का खतरा है। ऐसी सूरत में जज साहब उसको भेजते नहीं हैं और ज़िन्दगी भर के लिए खर्चा बाँध देते हैं। ऐसे केस मैंने अपनी आँखों से अदालत में होते हुए देंखे हैं।
बहरहाल तीन तलाक पर क़ानून बन जाता है, तो क्या इसका दुरूपयोग नहीं होगा, इसकी ज़िम्मेदारी क्या सरकार लेगी? औरत अपनी दुश्मनी पति से निकालने के लिए जाके थाने में झूठ कह देगी कि मेरे पति ने मुझको तीन तलाक दे दी है, फिर क्या होगा। फिर पति पर एफ आई आर दर्ज होगी और पति सीधा जेल में। अब ये औरत पति से भरण ,पोषण मांगेगी। तो ये भरण ,पोषण देगा कौन, क्योंकि पति बेचारा जेल में है, पत्नी अदालत में पति से भरण पोषण की मांग कर रही है। सरकार को चाहिए जब तक पति जेल में है, सरकार गुजारा भत्ता महिला को दे। तब कहीं माना जाएगा की हाँ तीन तलाक पर क़ानून सही बना है।
यह क़ानून महिला को आज़ादी देने के नाम पर पुरुषों पर जुल्म है।
आज हर इंसान से ये कहता सुना गया है कि जो काम आदमी कर सकते हैं वो औरतें भी कर सकती है और वाकई वो कर भी रही हैं और हर क्षेत्र में पुरुषों के कंधे से कन्धा मिला कर चल रही हैं। तो अगर पुरुष ज़ालिम हो सकता है, तो औरत ज़ालिम क्यों नहीं हो सकती? जब सारे काम वो कर रही हैं तो जुल्म क्यों नहीं कर सकती। यहाँ पर तो औरत को अबला, मजलूम, बेबस, लाचार और पता नहीं क्या- क्या कहा जाता है। यह कैसी दोरंगी बाते है, कभी महिला को लक्ष्मी बाई, अबन्तिका बाई और रानी पद्मावती कहतो हो, कभी अबला, मजबूर, बेबस कहतो हो।
इसीलिए कानून बने और ज़रूर बने लेकिन वो क़ानून समान बने, जितना महिला को ध्यान में रखके क़ानून बनाते हो उतना पुरुष को भी ध्यान में रखते हुए क़ानून बने। बस मेरा ये ही कहना है।
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