शिवाजी महाराज का संघर्ष मजलूमों पर अन्याय और जुल्म करने वाले शासकों के खिलाफ़ था किसी भी धर्म के खिलाफ़ नहीं: किशोर तायडे | New India Times

नरेन्द्र कुमार, ब्यूरो चीफ़, जलगांव (महाराष्ट्र), NIT:

शिवाजी महाराज का संघर्ष मजलूमों पर अन्याय और जुल्म करने वाले शासकों के खिलाफ़ था किसी भी धर्म के खिलाफ़ नहीं: किशोर तायडे | New India Times

मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र यह चार वर्ण हैं इन वर्णों में लड़ने का अधिकार केवल क्षत्रियों को था लेकिन शिवाजी महाराज ने इस व्यवस्था को नकारते हुए शुद्रो को शस्त्र रखने और चलाने का अधिकार दिया। शिवाजी महाराज ने जिन दबी कुचली 56 जातियों को हथियार से युद्ध लड़ने का अधिकार दिया उन्हीं ने स्वराज के निर्माण में अपना अहम योगदान दिया। छत्रपति शिवाजी महाराज की जयंती के अवसर पर जामनेर ब्लॉक के सवतखेड़े गांव में आयोजित व्याख्यान के दौरान बहुजन विचारक किशोर तायडे ने उक्त विचार व्यक्त किए। प्रबोधन में कहा कि हम लोग महान शख्सियतों की जयंती और स्मृतियों को क्यों ? याद करते हैं वो इस लिए क्योंकि इन तमाम महानुभावों ने समाज के उद्धार के लिए अपना सारा जीवन दिया। शिवाजी महाराज का संघर्ष गरीबों, मजलूमों पर अन्याय अत्याचार और जुल्म बरपाने वाले क्रूर शासकों के खिलाफ़ था। शिवाजी महाराज ने किसी भी धर्म के खिलाफ़ कोई लड़ाई नहीं लड़ी वह आजीवन सर्व धर्म समभाव तथा समता मूलक समाज व्यवस्था के पुरोधा रहे। मंच पर मनोज पाटील, राजू मोगरे, विनोद बाविस्कर, विश्वास साबले मौजूद रहे।

शिवाजी महाराज का संघर्ष मजलूमों पर अन्याय और जुल्म करने वाले शासकों के खिलाफ़ था किसी भी धर्म के खिलाफ़ नहीं: किशोर तायडे | New India Times

रैलियों की भरमार में नेताओं का नृत्य आविष्कार

शिव जयंती पर जलगांव जिले के सभी तहसीलों में रैलियों की भरमार रही। गिरिश महाजन, गुलाबराव पाटील जैसे सत्ता में बैठे नेता इन रैलियों में कैमरों के सामने ठीक उसी तरह थिरके जैसे तीस साल पहले राजनीतिक छात्र दशा में अपनी मकबुलियत के लिए शरीक हो कर थिरका करते थे। जामनेर में तीन रैलियां निकली हर साल की तुलना में इस बार आम जनों के भीतर उत्साह में कमी साफ़ नज़र आई। कारण है महंगाई बेरोज़गारी, कृषि की बदहाली, मराठा आरक्षण, भारतीय कांग्रेस जनता पार्टी की ओर से दी जा रही गारंटीयां। जिस जामनेर शहर में तीन दशकों से एक बायपास जी हां एक बायपास सड़क (कारखाने और उनसे मिलने वाले रोज़गार गारंटी को छोड़ हि दीजिए) नहीं बन पाई हो वहां की आवाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर की जाने वाली राजनीति के लिए आखिर कब तक अपने आने वाली नस्लों के भविष्य को दांव पर लगाती रहेगी।


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