मन की शुद्धि ध्यान से होती है व तन की शुद्धि स्नान से होती है: आचार्य डॉ. देवेन्द्र शास्त्री | New India Times

रहीम शेरानी हिन्दुस्तानी/पंकज बडोला, झाबुआ (मप्र), NIT:

मन की शुद्धि ध्यान से होती है व तन की शुद्धि स्नान से होती है: आचार्य डॉ. देवेन्द्र शास्त्री | New India Times

रायपुरिया श्रीमद्‌ भागवत कथा के पाँचवे दिन रायपुरिया में सोलंकी परिवार द्वारा आयोजित कथा में श्री हरिहर आश्रम के पीठाधीश्वर आचार्य डॉ. देवेन्द्र शास्त्री ने धर्म,.अध्यात्म के साथ व्यवहारिक मूल्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा की अगर जीवन में संस्कार नहीं है तो कुछ भी नहीं है।

संस्कार के बिना जीवन अधूरा है। जीवन के हर मोड़ पर संस्कार की आवश्यकता पड़ती है। खाने पीने से लेकर स्नान करने, मंदिर निर्माण से लेकर दान-पुण्य सब संस्कार से ही होता है। संस्कार अर्थात अशुद्धियों को दूर करना है।
आचार्य श्री ने कहा की संस्कार के मुख्य चार अंग हैं – ध्यान, स्नान, दान और संस्कार।

मन की शुद्धि ध्यान से होती है, जबकि तन की शुद्धि स्नान से होती है। इसी तरह धन को शुद्ध करने के लिए अपनी कमाई का 10 वां हिस्सा जरूर दान करना चाहिए।
गर्भ की शुद्धि संस्कार से होती है। उन्होंने कहा कि मंदिर का संस्कार मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा से होता है। घर में खाना खाते हैं खाना परोसने के पूर्व थाली को साफ करना थाली का संस्कार होता है। घर का संस्कार वास्तु शास्त्र होता है। आचार्य श्री ने कहा कि संस्कार के बिना कुछ भी नहीं है।

अविद्या की समाप्ति से ही मानवता की प्राप्ति

भागवत कथा में आचार्य श्री ने कहा कि जब तक मनुष्य जीवन मे अविद्या अर्थात विवेक शून्यता है तब तक मानव जीवन मे गुणात्मक विकास सम्भव नही है । आध्यात्मिक उन्नति तब ही सम्भव है जब जीवन पथ पर अविद्या का नाश हो। भगवान बालकृष्ण ने अपनी बाललीला में सर्वप्रथम पूतना राक्षसी का वध किया। पूतना को श्रीमद्भागवत में अविद्या का प्रतीक बताया गया है। कथा के पांचवें दिन भगवान गोवर्धन की पूजा की गई। कथा स्थल पर गोवर्धन पर्वत का सांकेतिक निर्माण किया गया। उसे आकर्षक ढंग से सजाकर 56 भोग की सामग्री अर्पित की गई।

भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठा कर गोकुल धाम की रक्षा की। गोवर्धन पूजा के बाद बरसाना की फूलों की होली खेली गई ,जिसके दर्शन कर पूरा पांडाल कृष्ण कन्हैया लाल के जयकारों से गूंज उठा। बरसाना होली प्रसंग पश्चात भागवत जी की आरती हुई। सोमवार को रुक्मिणी विवाह होगा। पांचवें दिन आचार्य श्री से आशीर्वाद लेने वालों में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ विभग्ग सह कार्यवाह आकाश चौहान, हिन्दुजागरण मंच के जिला सह सयोजक प्रकाश प्रजापत, पुणे निवासी गौरव भाई माहेश्वरी, नारायण जाट, सुनील बसेर, नमन पडियार, शास्त्री अनिल त्रिवेदी मंदसौर, जुझार सिंह पाटीदार, रितेश निमजा, रजनीकांत शुक्ल, दिनेश सोलंकी, बद्रीलाल लाइनमेन थांदला, संजय बैरागी जामली, संजय उपाध्याय सारंगी प्रमुख रहे।

नंद के घर आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की….

कथा के दौरान एक बार फिर कथा स्थल गोकुल धाम में तब्दील हो गया था।

व्यासपीठ से नंद के घर आनंद भयों की के बोल शुरू होते ही पूरा कथा स्थल झूमने लगा। जैसे- जैसे भजनों की रफ्तार बढ़ती गई श्रोताओं का झूमना भी तेज होता गया। नंद के घर कृष्ण के उत्सव में सारे श्रोता लीन हो गए। बच्चे, बूढ़े, जवान, महिला, पुरुष सभी कृष्ण के रंग में रंग गए। सुध बुध खोकर श्रद्धालु नाचते रहे। 20 से 25 मिनट तक कथा स्थल गोकुल बना रहा। हर तरफ हर्ष और उल्लास का माहौल ही दिख रहा था।

दोहे से प्रेम को समझाया

आचार्य श्री ने कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम को दोहे से समझाते हुए कहा कि एक संत नहीं जा रहे थे, तभी उनकी नजर एक मोम पर पड़ी, जो पिघल रहा था। संत ने पूछा – जल रहा है धागा पर तू क्यों पिघल रहा है। मोम ने कहा जिसे दिल में बसाया उसे जलते देख नहीं पाऊंगा। मोम का यह जवाब सुन चुप हो गए। आचार्य श्री ने कहा कि भागवत से प्रेम करने से भगवान श्री कृष्ण हमारे दिलों में बिराजमान हो जाते हैं और हमारे अंदर की गंदगी को साफ कर देते हैं। उन्होंने कहा कि कलियुग में मन को शुद्ध करने वाला भागवत से श्रेष्ठ कोई ग्रंथ नहीं है। कथा मन को शुद्ध करती है। कथा श्रवण के दौरान भगवान हमारी कानों से दिल में प्रवेश करते है और मन को साफ करते है तो मन निर्मल हो जाता है। जहां शुद्धि है वहीं शांति है और जहां शांति है वहां सुख है।

आचार्य श्री ने अहंकार को रुद्र का स्वरूप बताते हुए कहा कि अहंकार के चार अंग है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। मन चंद्रमा है तो बुद्धि भगवान ब्रह्मा का स्वरूप है। चित्त नारायण है और अहंकार रुद्र है। इन सभी के मूल में अहम है। अहम यानी मैं, यहीं दुख का कारण है। अहम का त्याग कर दें तो परमात्मा की शरण में जाने का मार्ग आसान हो जाएगा। जहां अहम नहीं वहां परमात्मा का वास होता है। उन्होंने कथा के दौरान प्रेम को परिभाषित करते हुए कहा कि प्रेम में दोष नहीं होता और ही दोष दिखता है। प्रेम दिल को जोड़ता है, जबकि घृणा, द्वेष दिल को तोड़ता है। द्वेष विनाश की ओर ले जाता है। परमात्मा की शरण में आने वाला भक्त धन और द्वेष से दूर हो जाता है।


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