अशफ़ाक़ क़ायमख़ानी, सीकर/जयपुर (राजस्थान), NIT:

तालीम की कमी कहें या फिर जहनियत में बदलाव की सख्त आवश्यकता मानें, यह तो सोशल साइंस के जानकर ही ठीक ठीक बता पायेगें। लेकिन आंखों से देखने पर लगता है कि हम पैसा आवश्यकता अनुसार वरियता के क्रम का आंकलन किये बिना खर्च करके अन्यंत्र खर्च कर रहे हैं।
शादी व मौत मरी के अलावा अन्य अवसरों पर फिजूल खर्च करने का रोना अक्सर हम रोते रहते हैं लेकिन एक मुस्लिम मोहल्ला स्थित दूध डेयरी से दूध लेना व वहां बैठना मेरा भी रहता है। वहां कुछ लोग तो अच्छी तादाद में घर की आवश्यकता अनुसार दूध लेते हैं लेकिन अधिकांश लोग दस व बीस रुपयों के अलावा तीस रुपयों का दूध लेते हैं वही यह लोग पास की दूकान से सौ-पचास रुपयों का गुटखा भी खरीद कर ले जाते हैं। यानि दूध दस बीस रुपयों का व गुटखा सौ-पचास रुपयों का खरीद।
अपने व अपने बच्चों के लिये दूध की आवश्यकता के मुकाबले गुटका बाज़ी को अहमियत देने के प्रचलन पर सोचना होगा। वैसे भी मुस्लिम समुदाय में तालीम की बजाये अन्य अवसरों पर खर्च करने का चलन सर चढकर बोल रहा है। जबकि तालीम से जहन खुलता है एवं जहन खुलने से जीवन में अच्छे बुरे व जायज नाजायज का फर्क का अहसास होता है। शहरों में दूध एक बानगी हो सकती है लेकिन यह देखा जरूर जाता है।
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